अथर्वन

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अथर्वन शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में देखने को मिलता है। 'निरुक्त'[1] के अनुसार 'अथर्वन' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- "चित्तवृत्ति के निरोध रूप समाधि से सम्पन्न व्यक्ति"।[2]

  • भृगु तथा अंगिरा के साथ अथर्वन वैदिक आर्यों के प्राचीन पूर्व पुरुषों की संज्ञा है।[3]
  • ऋग्वेद के अनेक सूक्तों[4] में कहा गया है कि अथर्वन लोगों ने अग्नि का मंथन कर सर्वप्रथम यज्ञ मार्ग का प्रवर्तन किया। इस प्रकार का अथर्वन 'ऋत्विज' शब्द का ही पर्यायवाची है।
  • 'अवेस्ता' में भी 'अथर्वन', 'अथ्रावन' के रूप में व्यवहृत होकर यज्ञकर्ता ऋत्विज का ही अर्थ व्यक्त करता है और इस प्रकार यह शब्द भारत-पारसीक-धर्म का एक द्युतिमान प्रतीक है।
  • अंगिरस ऋषियों के द्वारा दृष्ट मंत्रों के साथ समुच्चित होकर अथर्वेंदृष्ट मंत्रों का सहनीय समुदाय अथर्वसंहिता में उपलब्ध होता है। अथर्वण मंत्रों की प्रमुखता के कारण यह चतुर्थ वेद 'अथर्ववेद' के नाम से प्रख्यात है।
  • कुछ पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार अथर्वन उन मंत्रों के लिए प्रयुक्त होता है, जो सुख उत्पन्न करने वाले 'शोभन यातु' अर्थात 'जादू टोना' के उत्पादक होते हैं, और इसके विपरीत आंगिरस से उन अभिचार मंत्रों की ओर संकेत है, जिनका प्रयोग 'मारण', 'मोहन', 'उच्चाटन' आदि अशोभन कृत्यों की सिद्धि के लिए किया जाता है। परंतु इस प्रकार का स्पष्ट पार्थक्य अथर्ववेद की अंतरंग परीक्षा से नहीं सिद्ध होता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निरुक्त11।2।17
  2. थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेध
  3. अथर्वन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 19 फ़रवरी, 2014।
  4. 1।83।5; 6।15।17; 10।21।5

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