विजयमल

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विजयमल एक लोकगाथात्मक लोक काव्य है। जिस प्रकार आल्हा में वीर रस की प्रधानता पाई जाती है, उसी प्रकार इस गाथा में भी वीर रस की धारा प्रवाहित होती है। 'विजयमल' की गाथा 'कुँवर विजयी' के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसमें ऐतिहासिक तथ्य कितना है, यह कहना कठिन है, परंतु ऐसा जान पड़ता है कि किसी सत्य घटना को लेकर ही इस लोकगाथा के रचना की गयी है।[1]

संक्षिप्त कथा

'विजयमल' की कथा संक्षेप में इस प्रकार है-

'विजयमल' का जन्म रोहीदस गढ़ (रोहतासगढ़) नामक स्थान पर हुआ था। उसके दादा का नाम बुद्धूमल और पिता का नाम धीड़मल सिंह था। इसकी माता मैनावती वीर क्षत्राणी थी। विजयमल का भाई हिरवा तथा भावज सोभामती थी। जब विजयमल युवावस्था को प्राप्त हुआ, तब इसका विवाह बावन गढ़ के राजा बावनसूबा की लड़की तिलकी से होना निश्चित हुआ; परंतु विवाह के लिए जब बारात बावन गढ़ पहुँची, तब वहाँ के राजा ने किसी कारण से रुष्ट होकर सभी बारातियों को जेलखाने में बन्द करवा दिया। कुँवर विजयी किसी प्रकार से बचकर अपने देश को चला आया। यह बड़ा ही वीर और पराक्रमी व्यक्ति था। इसने बावन गढ़ के राजा से अपमान का बदला चुकाने के लिए बहुत बड़ी सेना एकत्र की और उस पर आक्रमण कर दिया। बावन गढ़ के राजकुमार का नाम मानिक चन्द था, जो बड़ा वीर तथा युद्ध कुशल था। बावन गढ़ में कुँवर विजयी और मानिक चन्द का बड़ा ही घनघोर युद्ध हुआ। सैरोघाटन नामक स्थान पर भी इनमें संघर्ष हुआ, जिसमें कुँवर विजयी की मृत्यु हो गयी, परंतु देवी के आशीर्वाद से उसे पुन: जीवन प्राप्त हो गया और अंत में युद्ध में इसकी विजय हुई। तिलकी से विवाह के पश्चात् कुँवर विजयी के चार पुत्र उत्पन्न हुए। वह सपरिवार आनन्द से राजसुख को भोगता हुआ अपने दिन बिताने लगा।"[1]

प्रचलित क्षेत्र

कुँवर विजयी की गाथा में 'मैना' और 'गोबिना' नामक दो प्रेमियों की कथा भी सम्मिलित है, परंतु इसका आधिकारिक कथावस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं है। विजयमल की गाथा भोजपुरी प्रदेश में बहुत प्रचलित है। यह वीर रस से ओत-प्रोत है। जब गवैये इसे लयपूर्वक गाने लगते हैं, तब श्रोताओं की एक अच्छी खासी भीड़ एकत्र हो जाती है।

संकलन तथा अनुवाद

ग्रियर्सन ने 'बंगाल एशियाटिक सोसायटी' की पत्रिका[2] में 'विजयमल' के गीत के संकलन तथा सम्पादन के अतिरिक्त इसका अंग्रेज़ी में अनुवाद भी प्रस्तुत किया गया है। आजकल वर्तमान लोक कवियों के द्वारा लिखी 'कुँवर विजयी' के गीत की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जिनमें आरा ज़िला निवासी महादेव प्रसाद सिंह की लिखी पुस्तक प्रसिद्ध है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 558 |
  2. भाग 53, पार्ट 3, सन 1884 ई.

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