महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 28 श्लोक 19-35

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 12:25, 5 August 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (1 अवतरण)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

अष्टाविंश (28) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टाविंश अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद

प्राणियों की उत्पत्ति, देहावसान, लाभ[1] और हानि-ये सब प्रारब्ध के ही आधार पर स्थित है। जैसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध स्वभावतः आते जाते रहते हैं, उसी प्रकार मनुष्य सुख और दुःखों को प्रारब्धानुसार पाता रहता है। सभी प्राणियों के लिये बैठना, सोना, चलना-फिरना, उठना और खाना-पीना- ये सभी कार्य समय के अनुार ही नियत रूप से होते रहते हैं। कभी-कभी वैद्य भी रोगी, बलवान् भी दुर्बल और श्रीमान् भी असमर्थ हो जाते हैं, यह समय का उलट फेर बड़ा अद्भुत है। उत्तम कुल में जन्म, बल-पराक्रम, आरोग्य, रूप, सौभाग्य और उपभोग सामग्री- ये सब होनहार के अनुसार ही प्राप्त होते हैं। जो दरिद्र हैं और संतान की इच्छा नहीं रखते हैं, उनके तो बहुत से पुत्र हो जाते हैं और जो धनवान् हैं, उनमें से किसी-किसी को एक पुत्र भी नहीं प्राप्त होता। विधाता की चेष्टा बड़ी विचित्र है। रोग, अग्नि, जल, शस्त्र, भूख, प्यास, विपत्ति, विष, ज्वर और ऊँचे स्थान से गिरता- ये सब जीव की मृत्यु के निमित्त हैं। जन्म के समय जिसके लिये प्रारब्ध वश जो निमित्त नियत कर दिया गया है, वही उसका सेतु है, अतः उसी के द्वारा वह जाता है अर्थात् परलोक में गमन करता है। कोई इस सेतु का उल्लघंन करता दिखायी नहीं देता अथवा पहले भी किसी ने इसका उल्लंघन किया हो, ऐसा देखने में नहीं आया। कोई-कोई पुरुष जो (तपस्या आदि प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा) दैव के नियन्त्रण में रहने योग्य नहीं है, वह पूर्वोत्त सेतु का उल्लंघन करता भी दिखायी देता है। इस जगत् में धनवान् मनुष्य भी जवानी में ही नष्ट होता दिखायी देता है और क्लेश में पड़ा हुआ दरिद्र भी सौ वर्षों तक जीवित रहकर अत्यन्त वृद्धावस्था में मरता देखा जाता है। जिनके पास कुछ नहीं है, ऐसे दरिद्र भी दीर्घ जीवी देखे जाते हैं और धनवान् कुल में उत्पन्न हुए मनुष्य भी कीट पतंगों के समान नष्ट होते रहते हैं। जगत् में प्रायः धनवानों को खाने और पचाने की शक्ति ही नहीं रहती है और दरिद्रों में पेट में काठ भी पच जाते हैं। दुरात्मा मनुष्य काल से पे्ररित होकर यह अभिमान करने लगता है कि मैं यह करूँगा। तत्पश्चात् असंतोष वश उसे जो-जो अभीष्ट होता है, उस पापपूर्ण कृत्य को भी वह करने लगता है। विद्वान् पुरुष शिकार करने, जुआ खेलने, स्त्रियों के संसर्ग में रहने और मदिरा पीने के प्रसंगों की बड़ी निन्दा करते हैं, परंतु इन पाप-कर्मों में अनेक शास्त्रों के श्रवण और अध्ययनसे सम्पन्न पुरुष भी संलग्न देखे जाते हैं। इस प्रकार काल के प्रभाव से समस्त प्राणी इष्ट और अनिष्ट पदार्थां को प्राप्त करते रहते हैं, इस इष्ट और अनिष्टकी प्राप्ति का अदृष्ट के सिवा दूसरा कोई कारण नहीं दिखायी देता। वायु, आकाश, अग्नि,चन्द्रमा, सूर्य, दिन, रात, नक्षत्र, नदी और पर्वतों को काल के सिवा कौन बनाता और धारण करता है? सर्दी,गर्मी और वर्षा का चक्र भी काल से ही चलता है। नरश्रेष्ठ! इसी प्रकार मनुष्यों के सुख-दुःख भी काल से ही प्राप्त होते हैं। वृद्धावस्था और मृत्यु के वश में पडे़ हुए मनुष्य को औषध, मन्त्र, होम और जप भी नहीं बचा पाते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नीलकण्ठ ने ’प्राप्ति’ का अर्थ ’लाभ’ और ’व्यायाम’ का अर्थ उसके विपरीत ’अलाभ’ किया है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः