महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 14 श्लोक 21-39

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 13:11, 5 August 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) ('==चतुर्दश (14) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

चतुर्दश (14) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद

प्रभो! महाराज! पुरूष सिंह! आपने अनेकों जनपदों से युक्त इस जम्बूद्वीप को अपने दण्ड से रौंद डाला है। नरेश्वर! जम्बूद्वीप के समान ही कौशद्वीप को जो महामेरू से परिश्रम है, आपने दण्ड से कुचल दिया है। नरेन्द्र! क्रोश्यद्वीप के समान ही शाकद्वीप को जो महामेरू से पूर्व है, आपने दण्ड देकर दबा दिया है। पुरूष सिंह! महामेरू से उत्तर शाकद्वीप के बराबर ही जो भद्राश्व वर्ष है, उसे भी आपके दण्ड से दबना पड़ा है। वीर! इनके अतिरिक्त भी जो बहुत-से देशों के आश्रय भूत द्वीप और अन्तद्वीप हैं, समुद्र लाघकर उन्हें भी आपने दण्ड द्वारा दबाकर अपने अधिकार में कर लिया है। भरतनन्दन! महाराज! आप ऐसे-ऐसे अनुपम पराक्रम करके द्विजातियों द्वारा सम्मानित होकर भी प्रसन्न नहीं हो रहे हैं। भारत! मतवाले साड़ों और बलशाली गजराजों के समान आने इन भाइयों को देखकर आप इनका अभिनन्दन कीजिये। पुरूष सिंह! शत्रुओं को संताप देने वाले आपके ये सभी भाई शत्रु-सैनिकों का वेग सहन करने में समर्थ हैं, देवताओं के समान तेजस्वी हैं, मेरा विश्वास है कि इनमें से एक वीर भी मुझे पूर्ण सुखी बना सकता है, फिर ये मेरे पाचों नरश्रेष्ठ पति क्या नहीं कर सकते हैं? शरीर को चेष्टाशील बनाने में सम्पूर्ण इन्द्रियों का जो स्थान है, वही मेरे जीवन को सुखी बनाने में इन सबका है। महाराज! मेरी सास कभी झूठ नहीं बोली। वे सर्वज्ञ है और सब कुछ देखने वाली हैं। उन्होने मुझसे कहा था- ’पांचालराजकुमारी! युधिष्ठिरशीघ्रतापूर्वक पराक्रम दिखाने वाले हैं। ये कई सहस्त्र राजाओं का संहार करके तुम्हें सुख के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करेंगे।’ किंतु जनेश्वर! आज आपका यह मोह देखकर मुझे अपनी सास की कही हुई बात भी व्यर्थ होती दिखायी देती है। जिनका जेठा भाई उन्मत्त हो जाता है, वे सभी उसी का अनुकरण करने लगते हैं। महाराज! आपके उन्माद से सारे पाण्डव भी उन्मत्त हो गये हैं। नरेश्वर! यदि ये आपके भाई उन्मत्त नहीं हेए होते तो नास्तिकों के साथ आपको भी बाधकर स्वयं इस बसुधा का शासन करते। जो मूर्ख इस प्रकार का काम करता है, वह कभी कल्याण का भागी नहीं होता। जो उन्मादग्रस्त होकर उलटे मार्ग से चलने लगता है, उसके लिये धूप की सुगंध देकर, आखों में सिद्ध अंजन लगाकर, नाक में सुघनी सुघाकर अथवा और कोई औषध खिलाकर उसके रोग की चिकित्सा करनी चाहिये। भरतश्रेष्ठ! मैं ही संसार की सब स्त्रियों में अधम हॅू, जो कि पुत्रों से हीन हो जाने पर भी जीवित रहना चाहती हॅू। ये सब लोग आपको समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं; फिर भी आप ध्यान नहीं देते। मैं इस समय जो कुछ कह रही हॅू मेरी यह बात झूठी नहीं है। आप सारी पृथ्वी का राज्य छोड़कर अपने लिये स्वयं ही विपत्ति खड़ी कर रहे हैं। नृपश्रेष्ठ! जैसे मान्यधाता और अम्बरीष भूमण्डल के समस्त राजाओं में सम्मानित थे, राजन् वैसे ही आप भी सुशोभित हो रहे हैं। नरेश्वर! धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए पर्वत, वन और द्वीपोंसहित पृथ्वी देवी का शासन कीजिये। इस प्रकार उदासीन न होइये। नृपश्रेष्ठ! नाना प्रकार के रूज्ञों का अनुष्ठान और शत्रुओं के साथ युद्ध कीजिये। ब्राह्मंणों को धन, भोगसामग्री और वस्त्रों का दान कीजिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्र्तगत राजधर्मानुशासन पर्व में द्रौपद वाक्य विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः