महाभारत आदि पर्व अध्याय 42 श्लोक 20-41

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 09:02, 8 August 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (1 अवतरण)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

द्विचत्‍वारिंश (42) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्विचत्‍वारिंश अध्‍याय: श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद

राजेन्द्र ! उस ऋषिकुमार ने आज अपने पिता के अनजान में ही आपके लिये यह शाप दिया है कि ‘आज से सात रात के बाद ही तक्षक नाग आपकी मृत्यु का कारण हो जायेगा।' इस दशा में आप अपनी रक्षा की व्यवस्था करें। यह मुनि ने बार-बार कहा है। उस शाप को कोई भी टाल नहीं सकता। स्वयं महर्षि भी क्रोध में भरे हुए अपने पुत्र को शान्त नहीं कर पा रहे हैं। अतः राजन ! आपके हित की इच्छा से उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है। उग्रश्रवाजी कहते हैं—यह घोर वचन सुनकर कुरूनन्दन राजा परीक्षित मुनि का अपराध करने के कारण मन-ही-मन संतप्त हो उठे। वे श्रेष्ठ महर्षि उस समय वन में मौनव्रत का पालन कर रहे थे, यह सुनकर राजा परीक्षित का मन और भी शोक एवं संताप में डूब गया। शमीक मुनि की दयालुता और अपने द्वारा उनके प्रति किये हुए उस उपराध का विचार करके वे अधिकाधिक संतप्त होने लगे। देवतुल्य राजा परीक्षित को अपनी मृत्यु का शाप सुनकर वैसा संताप नहीं हुआ जैसा कि मुनि के प्रति किये हुए अपने उस बर्ताव को याद करके वे शोकमग्न हो रहे थे। तदनन्तर राजा ने यह संदेश देकर उस समय गौरमुख को विदा किया कि ‘भगवान शमीक मुनि यहाँ पधारकर पुनः मुझ पर कृपा करें। गौरमुख के चले जाने पर राजा ने उद्विग्नचित्त हो मन्त्रियों के साथ गुप्तमंत्रणा की। मन्त्र-तत्व के ज्ञाता महाराज ने मन्त्रियों से सलाह करके एक ऊँचा महल बनवाया; जिसमें एक ही खंभा लगा था। यह भवन सब ओर से सुरक्षित था। राजा ने वहाँ रक्षा के लिये आवश्यक प्रबन्ध किया, उन्होंने सब प्रकार की ओपधियाँ जुटा ली और वैद्यों तथा मन्त्रसिद्ध ब्राह्मणों के सब ओर नियुक्त कर दिया। वहीं रहकर वे धर्मज्ञ नरेश सब ओर से सुरक्षित हो मन्त्रियों के साथ सम्पूर्ण राज-कार्य की व्यवस्था करने लगे। उस समय महल में बैंठे हुए महाराज से कोई भी मिलने नहीं जाता था। वायु को भी वहाँ से निकल जाने पर पुनः प्रवेश के समय रोका जाता था। सातवाँ दिन आने पर मन्त्रशास्त्र के ज्ञाता द्विजश्रेष्ठ कश्यप राजा की चिकित्सा करने के लिये आ रहे थेा। उन्होंने सुन रखा था कि ‘भूपशिरोमणि परीक्षित को आज नागों में श्रेष्ठ तक्षक यमलोक पहुँचा देगा। अतः उन्होंने सोचा कि नागराज के डँसे हुए महाराज का विष उतारकर मैं उन्हें जीवित कर दूँगा। ऐसा करने से वहाँ मुझे धन तो मिलेगा ही, लोकोपकारी राजा की जिलाने से धर्म भी होगा। मार्ग में नागराज तक्षक ने कश्यप को देखा। वे एकचित्त होकर हस्तिनापुर की ओर बढ़े जा रहे थे। तब नागराज ने बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर मुनिवर कश्यप से पूछा-‘आप कहाँ बड़ी उतावली के साथ जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं। कश्यप ने कहा—कुरूकुल में उत्पन्न शत्रुदमन महाराज परीक्षित को आज नागराज तक्षक अपनी विपाग्नि से दग्ध कर देगा। वे राजा पाण्डवों की वंश परम्परा को सुरक्षित रखने वाले तथा अत्यन्त पराक्रमी हैं। अतः सौम्य ! अग्नि के समान तेजस्वी नागराज के डँस लेने पर उन्हें तत्काल विष रहित करके जीवित कर देने के लिये मैं जल्दी-जल्दी जा रहा हूँ। तक्षक बोला—ब्रह्मन ! मैं ही वह तक्षक हूँ। आज राजा को भस्म कर डालूँगा। आप लौट जाइये। मैं जिसे डँस लूँ, उसकी चिकित्सा आप नहीं कर सकते। कश्यप ने कहा—मैं तुम्हारे डँसे हुए राजा को वहाँ जाकर विष से रहित कर दूँगा। यह विद्याबल से सम्पन्न मेरी बुद्धि का निश्चय है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः