महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 17-35

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द्वितीय (2) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद


'अनेक दोषों से युक्‍त, ज्ञान विरुद्ध एवं कल्‍याण नाशक कर्म आप जैसे ज्ञानवान पुरुष नहीं फँसते हैं। राजन ! योग के आठ अंग – यम, नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्‍याहार, धारणा, ध्‍यान, और समाधि से सम्‍पन्‍न, अमंगलों का नाश करने वाली तथा श्रुतियों और स्‍मृतियों के स्‍वाध्‍याय से भली भाँति दृढ. की हुई जो उत्‍तम बुद्धि कही गयी है, आप में स्थित है। ‘अर्थ संकट, दुस्‍तर दु:ख तथा स्‍वजनों पर आयी हुई विपत्तियों में आप जैसे ज्ञानी शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीडित नहीं होते।' ‘पूर्वकाल में महात्‍मा राजा जनक के अन्‍त:करण को स्थिर करने वाले करने वाले कुछ श्‍लोकों का गान किया था। मैं उन श्‍लोकों का वर्णन करता हूँ,आप सुनिये--।
‘सारा जगत मानसिक और शारीरिक दु:खों से पीडित है। उन दोनों प्रकार के दु:खों की शांति का यह उपाय संक्षेप और विस्‍तार से सुनिये। ‘रोग, अप्रिय घटनाओं की प्राप्ति, अधिक परिश्रम त‍था प्रिय वस्‍तुओं का वियोग—इन चार कारणों से शारीरिक दु:ख प्राप्‍त होता है।' ‘समय पर इन चारों कारणों का प्रतिकार करना एवं कभी उसका चिन्‍तन न करना – ये दो क्रिया योग (दु:ख निवारक उपाय ) हैं। इन्‍हीं से आधि-व्‍याधि की शान्ति होती है। ‘अत: बुद्धिमान तथा विद्वान पुरुष, प्रिय वचन बोलकर तथा हितकर भोगों की प्राप्ति कराकर पहले मनुष्‍यों के मानसिक दु:खों का ही निवारण किया करते हैं। ‘क्‍योंकि मन में दु:ख होने पर शरीर भी संतप्‍त होने लगता है; ठीक वैसे ही जैसे तपाये हुए लोहे को डाल देने पर घड़े में रखा हुआ शीतल जल भी गरम हो जाता है। ‘इसलिए जल से अग्नि को शान्‍त करने की भाँति ज्ञान के द्वारा मानसिक दु:ख को शान्‍त करना चाहिए। मन का दु:ख मिट जाने पर मनुष्‍य के शरीर का दु:ख भी दूर हो जाताहै।'

‘मन के दु:ख का मूल कारण क्‍या है ? इसका पता लगाने पर ‘स्‍नेह,(संसार में आसक्ति) की ही उपलब्धि होती है। इसी स्‍नेह के कारण ही जीव कहीं आसक्‍त होता है और दु:ख पाता है।' ‘दु:ख का मूल कारण है आसक्ति। आसक्ति से ही भय होता है। शोक, हर्ष तथा क्‍लेश। इन सब की प्राप्ति भी आसक्ति के कारण से होती है। आसक्ति से ही विषयों में भाव और अनुराग होते हैं। ये दोनों ही अमंगलकारी हैं। इनमें भी पहला अर्थात विषयों के प्रति भाव महान अनर्थ कारक माना गया है। ‘ जैसे खोखलों में लगी हुई आग सम्‍पूर्ण वृक्ष को जड़- मूल सहित जलाकर भस्‍म कर देती है, उसी प्रकार विषयों के प्रति थोड़ी- सी भी आसक्ति धर्म और अर्थ दोनों का नाश कर देती है।' ‘विषयों के प्राप्‍त न होने पर जो उनका त्याग करता है, वह त्‍यागी नहीं है; अपितु जो विषयों के प्राप्‍त होने पर भी उनमें दोष देखकर उनका परित्‍याग करता है – वही वैराग्‍य को प्राप्‍त होता है। उसके मन में किसी के प्रति द्वेष- ‌भाव न होने के कारण वह निरवैर तथा बन्‍धनमुक्‍त होताहै। ‘इसलिए मित्रों तथा धनराशि को पाकर इनके प्रति स्नेह (आसक्ति)न करे । अपने शरीर से उत्पन्न हुई आसक्ति को ज्ञान से निवृत्‍त करे। ‘जो ज्ञानी, योगयुक्‍त, शास्‍त्रज्ञ तथा मन को वश में रखने वाले हैं, उन पर आसक्ति का प्रभाव उसी प्रकार नहीं पड़ता, जैसे कमल के पत्‍ते पर जल नहीं ठहरता।' ‘राग के वशीभूत हुए पुरुषों को काम अपनी ओर आकृष्‍ट कर लेता है। फिर उसके मन में कामभोग की इच्‍छा जाग उठती है। तत्‍पश्‍चात तृष्‍णा बढ़ने लगती है। तृष्‍णा सबसे बढ़कर पापिष्‍ठ है (पाप में प्रवृत्ति करने वाली) तथा नित्‍य उद्वेग करने वाली बतायी गयी है। उसके द्वारा प्राय: अधर्म ही होता है। वह अत्‍यन्‍त भयंकर पापबन्‍धन में डालने वाली है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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