महाभारत वन पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-19

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 13:27, 19 July 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

एकोनविंश (19) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

प्रद्युम्न द्वारा शाल्व की पराजय

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- कुन्तीनन्दन ! प्रद्युम्न के ऐसा कहने पर सूतपुत्र ने शीघ्र ही बलवानों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न से थोड़े शब्दों में मधुरतापूर्वक कहा-- ‘रुक्मिणीनन्दन ! संग्रामभूमि में घोड़ों की बागडोर सँभालते हुए मुझे तनिक भी भय नहीं होता। मैं वृष्णिवंशियों में युद्धधर्म को भी जानता हूँ। आपने जो कुछ कहा है, उसमें कुछ भी अन्यथा नहीं है। ‘आयुष्मान !' मैंने तो सारथ्य में तत्पर रहने वाले लोगों के इस उपदेश का स्मरण किया था कि सभी दशाओं में रथी की रक्षा करनी चाहिये। उस समय आप भी अधिक पीड़ित थे। ‘वीर शाल्व के चलाये हुए बाणों से अधिक घायल होने के कारण आपको मूर्च्छा आ गयी थी, इसीलिये मैं आपको लेकर रणभूमि से हटा था।' ‘सात्वत वीरों मे प्रधान केशवनन्दन !' अब दैवेच्छा से आप सचेत हो गये हैं, अतः घोड़े हाँकने की कला में मुझे कैसी उत्तम शिक्षा मिली है, उसे देखिये। ‘मैं दारुक का पुत्र हूँ और उन्होंने ही मुझे सारथ्य कर्म की यथावत शिक्षा दी है। देखिये ! अब मैं निर्भय होकर राजा शाल्व की इस विख्यात सेना में प्रवेश करता हूँ।'

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-- वीरवर ! ऐसा कहकर उस सूतपुत्र ने घोड़ों की बागडोर हाथ में लेकर उन्हें युद्धभूमि की ओर हाँका और शीघ्रतापूर्वक वहाँ जा पहुँचा। उसने समान-असमान और वाम-दक्षिण आदि सब प्रकार की विचित्र मण्डलकार गति से रथ का संचालन किया। राजन ! वे श्रेष्ठ घोड़े चाबुक की मार खाकर, बागडोर हिलाने से तीव्र गति से दौड़ने लगे, मानो आकाश में उड़ रहे हों। महाराज ! दारुकपुत्र के हस्त लाघव को समझकर वे घोड़े प्रज्वलित अग्नि की भाँति दमकते हुए इस प्रकार जा रहे थे, मानो अपने पैरों से पृथ्वी को स्पर्श भी न कर रहे हों। भरतकुलभूषण ! दारुक के पुत्र ने अनायास ही शाल्व की उस सेना को अपसव्य ( दाहिने ) कर दिया। यह एक अद्भुत बात हुई। शोभराज शाल्व प्रद्युम्न के द्वारा अपनी सेना का अपसव्य किया जाना न सह सका। उसने सहसा तीन बाण चलाकर प्रद्युम्न के सारथी को घायल कर दिया। महाबाहो ! दारुककुमार ने वहाँ बाणों के वेगपूर्वक प्रहार की कोई चिन्ता न करते हुए शाल्व की सेना को अपसव्य ( दाहिने ) करते हुए रथ को आगे बढ़ाया। वीरवर ! तब शोभराज शाल्व ने पुनः मेरे पुत्र रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न पर अनेक प्रकार के बाण चलाये। शत्रु वीरों का संहार करने वाले रुक्मिणनन्दन प्रद्युम्न अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए शाल्व के बाणों को अपने पास आने से पहले ही तीक्ष्ण बाणों से मुस्कुराकर काट देते थे। प्रद्युम्न के द्वारा अपने बाणों को छिन्न-भिन्न होते देख सौभराज ने भयंकर आसुरी माया का सहारा लेकर बहुत-से बाण बरसाये। प्रद्युम्न ने शाल्व को अति शक्तिशाली दैत्यास्त्र का प्रयोग करता जानकर ब्रह्मस्त्र के द्वारा उसे बीच में ही काट डाला और अन्य बहुत-से बाण बरसाये। वे सभी बाण शत्रुओं का रक्त पीने वाले थे। उन बाणों ने शाल्व के अस्त्रों का नाश करके उसके मस्तक, छाती और मुख को बाँध डाला, जिससे वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। क्षुद्र स्वभाव वाले राजा शाल्व के बाण विद्ध होकर गिर जाने पर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न ने अपने धनुष पर एक उत्तम बाण का संधान किया, जो शत्रु का नाश कर देने वाला था।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः