महाभारत वन पर्व अध्याय 30 श्लोक 18-37

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 13:48, 19 July 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

त्रिंशो (30) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रिंशो अध्याय: श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद

परंतु महाराज ! उस कपट द्यूत जनित पराजय के समय आपकी बुद्धि विपरीत हो गयी, जिसके कारण आप राज्य, धन, आयुध तथा भाइयों और मुझे भी दाँव पर रखकर हार गये। आप सरल, कोमल, उदार, लज्जाशील, और सत्यवादी हैं। न जाने कैसे आपकी बुद्धि में जुआ खेलने का व्यसन आ गया। आपके इस दुःख और भयंकर विपत्ति को विचार कर अत्यन्त मोह प्राप्त हो रहा है और मेरा मन दुःख से पीडित हो रहा है। इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण देते हैं, जिसमें कहा गया है कि सब लोग ईश्वर के वश में हैं, कोई भी स्वाधीन नहीं है। विधाता ईश्वर ही सबके पूर्वकर्मों के अनुसार प्राणियों के लिये सुख- दुःख, प्रिय- अप्रिय की व्यवस्था करते हैं। नरवीर नरेश ! जैसे कठपुतली सूत्राधार से प्रेरित हो अपने अंगो का संचालन करती है, उसी प्रकार यह सारी प्रजा ईश्वर की प्रेरणा से अपने हस्त-पाद आदि अंगों द्वारा विविध चेष्टाएँ करती हैं। भारत ! ईश्वर आकाश के समान सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त होकर उनके कर्मानुसार सुख-दुःख का विधान करते हैं।जीव स्वतन्त्र नहीं है, वह डोरे में बँधे हुए पक्षी की भाँति कर्म के बन्धन में बँधा होने से परतन्त्र है। वह ईश्वर के ही वश में होता है। उसका न तो दूसरों पर वश चलता है, न अपने ऊपर।

सूत में पिरोयी हुई मणि, नाक में नथे हुए बैल और किनारे से टूटकर बीच में गिरे हुए वृक्ष की भाँति यह सदा ईश्वर के आदेश का ही अनुसरण करता है; क्योंकि वह उसी से व्याप्त और उसी के अधीन है। यह मनुष्य स्वाधीन होकर समय को नहीं बिताता। यह जीव अज्ञानी तथा अपने सुख- दुःख के विधान में भी असमर्थ है। यह ईश्वर से प्ररित होकर ही स्वर्ग एवं नरक में जाता है। भारत ! जैसे क्षुद्र तिनके बलवान वायु के वश में हो उड़ते-फिरते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणी ईश्वर के अधीन हो आवागमन करते हैं। कोई श्रेष्ठ कर्म में लगा हुआ हो चाहे पापकर्म में, ईश्वर सभी प्राणियों में व्याप्त होकर विचरते हैं; किंतु वे यही हैं। इस प्रकार उनका लक्ष्य नहीं होता। यह क्षेत्रसंज्ञक शरीर ईश्वर का साधनमात्र है, जिसके द्वारा वे सर्वव्यापी परमेश्वर प्राणियों से स्वेच्छाप्रारब्ध रूप शुभाशुभ फल भुगताने वाले कर्मों का अनुष्ठान करवाते हैं। तत्वदर्शी मुनियों ने वस्तुओं के स्वरूप कुछ और प्रकार से देखे हैं; किंतु अज्ञानियों के सामने किसी और रूप में आभासित होते हैं। जैसे आकाशचारी सूर्य की किरणें मरुभूमि में पड़कर जल के रूप में प्रतीत होने लगती हैं। लोग भिन्न-भिन्न वस्तुओं को भिन्न-भिन्न रूपों में मानते हैं; परंतु शक्तिशाली परमेश्वर उन्हें और ही रूप में बनाते हैं और बिगाड़ते हैं। महाराज युधिष्ठिर ! जैसे अचेतन एवं चेष्टरहित काठ, पत्थर और लोहे को मनुष्य काठ, पत्थर और लोहे से ही काट देता है, उसी प्रकार सबके पितामह स्वयम्भू भगवान श्री हरि माया की आड़ लेकर प्राणियों से ही प्राणियों का विनाश करते हैं। जैसे बालक खिलौना खेलता है, उसी प्रकार स्वेच्छानुसार कर्म ( भाँति-भाँति की लीलाएँ ) करने वाले शक्तिशाली भगवान सब प्राणियों के साथ उनका परस्पर संयोग-वियोग कराते हुए लीला करते रहते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः