महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 39 श्लोक 1-17

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एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (नारदागमन पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

राजा युधिष्ठिर द्वारा धृतराष्ट्र,गान्धारी और कुन्ती - इन तीनों की हड्डियों को गंगा में प्रवाहित कराना तथा श्राद्धकर्म करना

नारद जी ने कहा- उत्तम व्रत का पालन करने वाले नरेश ! विचित्रवीर्य कुमार राजा धृतराष्ट्र का दाह व्यर्थ (लौकिक) अग्नि से नहीं हुआ है । इस विषय में मैंने वहाँ जैसा सुना था, वह सब तुम्हें बताऊँगा। हमारे सुनने में आया है कि वायु पीकर रहने वाले वे बुद्धिमान नरेश जब घने वन में प्रवेश करने लगे, उस समय उन्होंने याजकों द्वारा इष्टि कराकर तीनों अग्नियों को वहीं त्याग दिया। भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर उनकी उन अग्नियों को उसी निर्जन वन में छोड़कर उनके याजकगण इच्छानुसार अपने-अपने स्थान को चले गये। कहते हैं, वही अग्नि बढ़कर उस वन में सब ओर फैल गयी और उसी ने उस सारे वन को भस्मसात् कर दिया-यह बात मुझ से वहाँ के तापसों ने बतायी थी। भरतश्रेष्ठ ! वे राजा गंगा के तट पर, जैसा कि मैंने तुम्हें बताया है, उस अपनी ही अग्नि से दग्ध हुए हैं निष्पाप नरेश ! गंगा जी के तट पर मुझे जिनके दर्शन हुए थे, उन मुनियों ने मुझ से ऐसा ही बताया था। पृथ्वी नाथ ! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र अपनी ही अग्नि से दाह को प्राप्त हुए हैं, तुम उन नरेश के लिये शोक न करो। वे परम उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं। जनेश्वर ! तुम्हारी माता कुन्ती देवी गुरूजनों की सेवा के प्रभाव से बहुत बड़ी सिद्धि को प्राप्त हुई हैं, इस विषय में मुझे कोई संदेह नहीं है। राजेन्द्र ! अब अपने सब भाइयों के साथ जाकर तुम्हें उन तीनों के लिये जलांजलि देनी चाहिये । इस समय यहाँ इसी कर्तव्य का पालन करना चाहिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! तब पाण्डव- धुरन्धर पृथ्वीपाल नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर अपने भाइयों और स्त्रियों के साथ नगर से बाहर निकले ।उनके साथ राज भक्ति को सामने रखने वाले पुरवासी और जनपद निवासी भी थे । वे सब एक वस्त्र धारण करके गंगा जी के समीप गये। उन सभी श्रेष्ठ पुरूषों ने गंगा जी के जल में स्नान करके युयुत्सु को आगे रखते हुए महात्मा धृतराष्ट्र के लिये जलांजलि दी। फिर विधिपूर्वक नाम और गोत्र का उच्चारण करते हुए गान्धारी और कुन्ती के लिये भी उन्होंने जल-दान किया । तत्पश्चात् शैचसम्पादन या अशौचनिवृत्ति के लिये प्रयत्न करते हुए वे सब लोग नगर से बाहर ही ठहर गये। नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने जहाँ राजा धृतराष्ट्र दग्ध हुए थे, उस स्थान पर भी हरद्वार में विधि-विधान के जानने वाले विश्वास पात्र मनुष्यों को भेजा और वहीं उनके श्राद्ध कर्म करने की आज्ञा दी । फिर उन भूपाल नेउन पुरूषों को दान में देने योग्य नाना प्रकार की वस्तुएँ अर्पित कीं। शौच-सम्पादन के लिये दशाह आदि कर्म कर लेने के पश्चात् पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर ने बारहवें दिन धृतराष्ट्र आदि के उद्देश्य से विधिवत् श्राद्ध किया तथा उन श्राद्धों में ब्राह्मणों को पर्याप्त दक्षिणाएँ दीं। तेजस्वी राजा युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती के लिये पृथक्- पृथक् उनके नाम ले-लेकर सोना, चाँदी, गौ तथा बहुमूल्स शय्याएँ प्रदान कीं तथा परम उत्तम दान दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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