महाभारत स्‍त्री पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-18

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 07:02, 3 August 2015 by आयुषी गर्ग (talk | contribs) ('==सप्तदष (17) अध्याय: स्‍त्रीपर्व (जलप्रदानिक पर्व )== <div st...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

सप्तदष (17) अध्याय: स्‍त्रीपर्व (जलप्रदानिक पर्व )

महाभारत: स्‍त्रीपर्व: सप्तदष अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय। दुर्योधन को मारा देखकर शोक से पीडि़त हुई गान्धारी वन में कटे हुए केले के वृक्ष की तरह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी ।पुनः होश में आने पर अपने पुत्र को पुकार-पुकार कर वे विलाप करने लगीं। दुर्योधन को खून से लथपथ होकर सोया देख उसे हृदय से लगाकर गान्धारी दीन होकर रोने लगी। उनकी सारी इन्द्रियां व्याकुल हो उठी थीं। वे शोक से आतुर हो हा पुत्र। हा पुत्र कहकर विलाप करने लगीं । दुर्योधन के गले की विशाल हड्डी मांस में छिपी हुई थी। उसने गले में हार और निष्क पहने रखे थे। उन आभूषणों से विभूषित बेटे के वक्षःस्थल को आसूओं से सींचती हुई गान्धारी शोकागनी संतप्त हो रही थी । वे पास ही खड़े हुए श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहने लगीं- बृष्णिनन्दन। प्रभो। भाई-बन्धुओं का विनाश करने वाला जब यह भीषण संग्राम उपस्थित हुआ था उस समय इस नृपश्रेष्ठ दुर्योधन ने मुझसे हाथ जोड़कर कहा- माताजी। कुटम्बी जनों इस संग्राम में आप मुझे मेरी विजय के लिये आशीर्वाद दें । पुरूषसिंह श्रीकृष्ण। उसके ऐसा कहने पर मैं यह सब जानती थी कि मुझ पर बड़ा भारी संकट आने वाला है, तथापि मैंने उससे यही कहा- जहां धर्म है, वहीं विजय है । बेटा। शक्तिशाली पुत्र। यदि तुम युद्ध करते हुए धर्म से मोहित न होओगे तो निश्‍चय ही देवताओं के समान शस्त्रों द्वारा जीते हुए लोकों को प्राप्त कर लोगे । प्रभो। यह बात मैंने पहले ही कह दी थी; इसलिये मुझे इस दुर्योधन के लिये शोक नहीं हो रहा है। मैं तो इन दीन राजा धृतराष्ट्र के लिये शोक मग्न हो रही हूं जिनके सारे भाई-बन्धु मार डाले गये । माधव। अमर्षशील, योद्धाओं में श्रेष्ठ, अस्त्र विद्या के ज्ञाता, रणदुर्मद तथा वीर सयया पर पर सोये हुए मेरे इस पुत्र को देखो तो सही । शत्रुओं को संताप देने वाला जो दुर्योधन मूर्धाभिशिक्‍त राजाओं के आगे-आगे चलता था वही आज यह धूल में लोट रहा है। काल इस उलट-फेर को तो देखो । निश्चय ही वीर दुर्योधन उस उत्तम गति को प्राप्त हुआ है, जो सबके लिये सुलभ नहीं है; क्योंकि यह वीरसेवित शैया पर सामने मुंह किये सो रहा है ।।12।। पूर्वकाल में जिसके पास बैठकर सुन्दरी स्त्रियां उसके मनोरंजन करती थीं, वीर शैया पर सोये हुए आज उसी वीर का ये अमंगलकारिणी गिदडि़या मन बहलाव करती हैं। जिसके पास पहले राजा लोग वैठकर उसे आनन्द प्रदान करते थे, आज मरकर धरती पर पड़े हुए उसी वीर के पास गीध बैठे हुए हैं । पहले जिसके पास खड़ी होकर युवतियां सुन्दर पंखे झला करती थीं आज उसी को पक्षीगण अपनी पाखों से हवा करते हैं । यह महाभाहू सत्य पराक्रमी बलवान वीर दुर्योधन भीमसेन ,द्वारा गिराया जाकर युद्धस्थल में सिंह के मारे हुए गजराज के समान सो रहा है । श्री कृष्ण। भीमसेन की चोट, खाकर खून से लथपथ हो गदा लिये धरती पर सोये हुए दुर्योधन को अपनी आंख से देख लो । केशव। जिस महाबाहु वीर ने पहले ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं को जुटा लिया था वही अपनी अनिति के कारण युद्ध में मार डाला गया ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः