महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-18

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पञ्चपञ्चाशत्तम (55) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: पञ्चपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

षोडशराज की योपाख्‍यान का आंरभ, नारदजी की कृपा से राजा सृंजय को पुत्र की प्राप्ति, दस्‍युओं द्वारा उसका वध तथा पुत्रशोक संतप्‍त सृंजय को नारद जी का मरूतका चरित्र सुनाना

संजय क‍हते है – राजन ! मृत्‍यु की उत्‍पति और उसके अनुपम कर्म सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने पुन: व्‍यासजी को प्रसन्‍न करके उनसे यह बात कही । युधिष्ठिर बोले – ब्रह्मान् ! इन्‍द्र के समान पराक्रमी, श्रेष्‍ठ, पुण्‍यकर्मा, निष्‍पाप तथा सत्‍यवादी राजर्षिगण अपने योग्‍य उत्‍तम स्‍थान (लोक) में निवास करते है । अत: आप पुन:उन प्राचीन राजर्षियों के सत्‍कर्मो का बोध करानेवाले अपने यथार्थ वचनों द्वारा मेरा सौभाग्‍य बढ़ाइये और मुझे आश्‍वासन दीजिये । पूर्वकाल के किन-किन महामनस्‍वी पुण्‍यात्‍मा राजर्षियों ने यज्ञों में कितनी-कितनी दक्षिणाऍ दी थी । यह सब आप मुझे बताइये ।

व्‍यासजी ने कहा – राजन ! राजा शैव्‍य के सृंजय नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र था । उसके पर्वत और नारद – ये दो ऋषि मित्र थे । एक दिन वे दोनों म‍हर्षि सृंजय से मिलने के लिय उसके घर पधारे । उसने विधिपूर्वक उनकी पूजाकी और वे दोनों वहां सुखपूर्वक रहने लगे । एक समय दोनो ऋषियों के साथ राजा सृंजय सुखपूर्वक बैठे थे । उसी समय पवित्र मुसकानवाली परम सुन्‍दरी सृंजय की कुमारी पुत्री वहां आयी । आकर उसने राजा को प्रणाम किया । राजाने उसके अनुरूप अभीष्‍ट आशीवार्द देकर अपने पार्श्‍वभाग में खड़ी हुई उस कन्‍या का विधिपूर्वक अभिनन्‍दन किया । तब महर्षि पर्वत ने उस कन्‍या की ओर देखकर हंसते हुए से कहा – राजन ! यह समस्‍त शुभ लक्षणों से सम्‍मानित चचल कटाक्षवाली कन्‍या किसकी पुत्री है ? अहो ! यह सूर्यकी प्रभा है या अग्नि देव की शिखा है अथवा श्री, ह्री, कीर्ति, धृति, पुष्टि, सिद्धि या चन्‍द्रमा की प्रभा है ? । इस प्रकार पूछते हुए देवर्षि पर्वत से राजा सृंजय ने कहा – भगवन् ! यह मेरी कन्‍या है, जो मुझसे वर प्राप्‍त करना चाहती है। इसी समय नारदजी राजासे बोले –नरेश्‍वर ! यदि तुम परम कल्‍याण प्राप्‍त करना चाहते हो तो अपनी इस कन्‍या को धर्मपत्‍नी बनाने के लिये मुझे दे दो । तब सृंजय ने अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर नारदजी से कहा – दे दॅूगा । यह सुनकर पर्वत अत्‍यन्‍त कुपित हो नारदजी से बोल । ब्रह्मान् ! मैने मन ही मन पहले ही जिसका वरण कर लिया था, उसी का तुमने वरण किया है । अत: तुमने मेरी मनोनीत पत्‍नी को वर लिया है, इसलिये अब तुम इच्‍छानुसार स्‍वर्ग में नही जा सकते । उनके ऐसा कहने पर नारदजी ने उन्‍हें यह उत्‍तर दिया-मन से संकल्‍प करके, वाणी द्वारा प्रतिज्ञा करके, बुद्धि के द्वारा पूर्ण निश्‍चय के साथ, परस्‍पर सम्‍भाषणपूर्वक तथा संकल्‍प का जल हाथ मे लेकर जो कन्‍यादान किया जाता है, वर के द्वारा जो कन्‍याका पाणिग्रहण होता है और वैदिक मन्‍त्र के पाठ किये जाते हैं, परंतु इतने से ही पाणिग्रहण की पूर्णता का निश्‍चय नही होता है । उसकी पूर्ण निष्‍ठा तो सप्‍तपदी ही मानी गयी है । अत: इस कन्‍या के ऊपर पति रूप से तुम्‍हारा अधिकार नही हुआ है – ऐसी अवस्‍था मे भी तुमने मुझे शाप दे दिया है, इसलिये तुम भी मेरे बिना स्‍वर्गनही जा सकोगे । इस प्रकार एक दूसरे को शाप देकर वे दोनों उस समय वहीं ठहर गये । इधर राजा सृंजय ने पुत्र की इच्‍छा से पवित्र हो पूरी शक्ति लगाकर बड़े यत्‍नसे भोजन, पीने योग्‍य पदार्थ तथा वस्‍त्र आदि देकर ब्राह्राणों की अराधना की ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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