महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 72 श्लोक 70-88

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 13:03, 27 August 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (1 अवतरण)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

द्विसप्‍ततितम (72) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

महाभारत: द्रोण पर्व:द्विसप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 70-88 का हिन्दी अनुवाद

‘दूसरों को मान देने वाले भरतश्रेष्‍ठ ! संग्राम में सम्‍मुख युद्ध करते हुए वीर को मृत्‍यु की प्राप्ति हो, यही सम्‍पूर्ण शूरवीरों का अभीष्‍ट मनोरथ हुआ करता है । ‘अभिमन्‍यु ने रणक्षेत्र में महाबली वीर राजकुमारों का वध करके वीर पुरुषों द्वारा अभि‍लषित संग्राम में सम्‍मुख मृत्‍यु प्राप्‍त की है ।‘पुरुषसिंह ! शोक न करो । प्राचीन धर्मशास्‍त्रकारों ने संग्राम में वध होना क्षत्रियों का सनातन धर्म नियत किया है ।‘भरतश्रेष्‍ठ ! तुम्‍हारे शोकाकुल हो जाने से ये तुम्‍हारे सभी भाई, नरेशगण तथा सुहृद दीन हो रहे हैं ।‘मानद ! इन सबको अपने शान्तिपूर्ण वचन से आश्‍वासन दो । तुम्‍हें जानने योग्‍य तत्‍व का ज्ञान हो चुका है । अत: तुम्‍हें शोक नहीं करना चाहिये’ । अद्भुत कर्म करने वाले श्रीकृष्‍ण के इस प्रकार समझाने-बुझाने पर अर्जुन उस समय वहां गद्गद कण्‍ठवाले अपने सब भाइयों से बोले - ।‘मोटे कंधों, बडी भुजाओं तथा कमलसदृश विशाल नेत्रों वाला अभिमन्‍यु संग्राम में जिस प्रकार बडा था, वह सब वृत्‍तान्‍त मैं सुनना चाहता हूँ ।‘कल आप लोग देखेंगे कि मेरे पुत्र के वैरी अपने हाथी, रथ, घोडे और सगे-सम्‍बन्धियों सहित युद्ध में मेरे द्वारा मार डाले गये । ‘आप सब लोग अस्‍त्रविद्या के पण्डित और हाथ में हथियार लिये हुए थे । सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु साक्षात्‍ वज्रधारी इन्‍द्र से भी युद्ध करता हो तो भी आपके सामने कैसे मारा जा सकता था ? । ‘यदि मैं ऐसा जानता कि पाण्‍डव और पांचाल मेरे पुत्र की रक्षा करने में असमर्थ है तो मैं स्‍वयं उसकी रक्षा करता । ‘आप लोग रथ पर बैठे हुए बाणों की वर्षा कर रहे थे तो भी शत्रुओं ने आपकी अवहेलना करके कैसे अभिमन्‍यु को मार डाला ? । ‘अहो ! आप लोगों में पुरुषार्थ नहीं है और पराक्रम भी नहीं है, क्‍योंकि समरभूमि में आप लोगों के देखते-देखते अभिमन्‍यु मार डाला गया ।‘मैं अपनी ही निन्‍दा करूँगा, क्‍योंकि आप लोगों को अत्‍यन्‍त दुर्बल, डरपोक और सुदृढ निश्‍चय रहित जानकर भी मैं (अभिमन्‍यु को आप लोगों के भरोसे छोडकर) अन्‍यत्र चला गया ।‘अथवा आप लोगों के ये कवच और अस्‍त्र-शस्‍त्र क्‍या शरीर का आभूषण बनाने के लिये हैं ? मेरे पुत्र की रक्षा न करके वीरों की सभा में केवल बातें बनाने के लिये हैं ?’ । ऐसा कहकर फिर अर्जुन धनुष और श्रेष्‍ठ तलवार लेकर खडे हो गये । उस समय कोई उनकी ओर आंख उठाकर देख भी न सका । वे यमराज के समान कुपित हो बार-बार लंबी सांसें छोड रहे थे । उस समय पुत्र शोक से संतप्‍त हुए अर्जुन के मुख पर आंसुओं की धारा बह रही थीं । उस अवस्‍था में वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण अथवा ज्‍येष्‍ठ पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर को छोडकर दूसर सगे-सम्‍बन्‍धी न तो उनसे कुद बोल सकते थे और न तो देखने का ही साहस करते थे।श्रीकृष्‍ण और युधिष्ठिर सभी अवस्‍थाओं में अर्जुन के हितैषी और उनके मन के अनुकूल चलने वाले थे, क्‍योंकि अर्जुन के प्रति उनका बडा आदर और प्रेम था । अत: वे ही दोनों इनसे उस समय कुछ कहने का अधिकार रखते थे ।तदनन्‍तर मन ही मन पुत्र शोक से अत्‍यन्‍त पीडित हुए क्रोध भरे कमलनयन अर्जुन से राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार कहा।


इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञा पर्व में अर्जुनकोपविषयक बहत्‍तरवां अध्‍याय पूरा हुआ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः