महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 81 श्लोक 1-15

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 07:08, 25 August 2015 by कविता भाटिया (talk | contribs) ('==एकाशीतितम (81) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )== <div s...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

एकाशीतितम (81) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

महाभारत: द्रोण पर्व:एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन को स्वप्न में ही पुनः पाशुपतास्त्र की प्राप्ति संजय कहतें है- राजन्। तदनन्तर कुनती कुमार अर्जुन ने प्रसन्नचित हो हाथ जोडकर समस्त तेजो के भण्डार भगवान् वृषभध्वज का हर्षोत्फल नेत्रो से दर्शन किया। उन्होने अपने द्वारा समर्पित किये हुए रात्रि काल के उस नैत्यिक उपहार को , जिसे श्रीकृष्ण को निवेदित किया था भगवान् त्रिनेत्रधारी शिव के समीप रखा हुआ देखा । तब पाण्डुपुत्र अर्जुन ने मन ही मन भगवान् श्रीकृष्ण और ‍शिव की पूजा करके भगवान् शंकर से कहा-प्रभो। मैं आपसे दिव्य अस्त्र प्राप्त करना चाहता हूं। उस समय अर्जुन को वर -प्राप्ति के लिये वह वचन सुनकर महादेव जी मुसकराने लगे और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन से बोले-।नर श्रेष्ठ । तुम दोनो का स्वागत है। तुम्हारा मनोरथ मुझे विदित है। तुम दोनो जिस कामना से यहां आये हो उसे मै तुम्हे दे रहा हूं। शत्रुसूदन वीरो। यहां पास ही दिव्य अमृतमय सरोवर है। वही पूर्वकाल में मेंरा वह दिव्य धनुष और बाण रखा गया था, जिसके द्वारा मैने युद्ध में सम्पूर्ण देव-शत्रुओ को मार गिराया था। कृष्ण तुम दोनो उस सरोवर से बाण सहित वह उत्तम धनुष ने आओ। तब बहुत अच्छा कहकर वे दोनो वीर भगवान शंकर के पार्षदगणों के साथ सैकडो दिव्य ऐश्वर्यो से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण मनोरथो की सिद्धि करने वाले उस पुण्य मय दिव्य सरोवर की ओर प्रस्थित हुए, जिसकी ओर जाने के लिये महादेव जी ने स्वयं ही संकेत किया था। वे दोनो नर-नारायण ऋषि बिना किसी धबराहट के वहां जा पहूंचे। उस सरोवर के जट पर पहुंचकर अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनो ने जल के भीतर एक भयंकर नाग देखा, जो सूर्य मण्डल के समान प्रकाशित हो रहा था। वही उन्होने अग्रि समान तेजस्वी और सहसत्र फणों से युक्त दूसरा श्रेष्ठ नाग भी देखा, जो अपने मुख से आग की प्रचण्ड ज्वालाएं उगल रहा था। तब श्रीकृष्ण और अर्जुन जल से आचमन करके हाथ जोड भगवान शंकर को प्रणाम करते हुए उन दोनो नागो के निकट खडे हो गये।वे दोनो ही वेदो के विद्वान थे। अतः उन्होने शतरूद्री मन्त्रो को पाठ करते हुए साक्षात ब्रहस्वरूप् अप्रमेय शिव की सब प्रकार से शरण लेकर उन्हे प्रणाम किया। तदनन्तर भगवान शंकर की महिमा से वे दोनो महानाग अपने उस रूप को छोडकर दो शत्रुनाशक धनुष-बाण के रूप् में परिणत हो गये। उस समय अत्यनत प्रसन्न होकर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उस प्रकाशमान धनुष और बाण को हाथ में ने लिया।फिर वे उन्हे महादेव जी के पास ले आये और उन्हें महात्मा के हाथो में अर्पित कर दिया।


« पीछे आगे »


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः