महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 87 श्लोक 1-15

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 09:45, 25 August 2015 by कविता भाटिया (talk | contribs) ('==सप्ताषीतितम (87) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)== <div ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

सप्ताषीतितम (87) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व:सप्ताषीतितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

कौरव-सैनिकों का उत्साह तथा आचार्य द्रोण के द्वारा चक्रशकटव्यूह का निर्माण संजय कहते हैं- राजन्। वह रात बीतने पर प्रातःकाल शस्त्र धारियों में श्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य ने अपनी सारी सेनाओं का व्यूह बनाना आरम्भ किया। राजन् उस समय अत्यन्त क्रोध में भरकर एक दूसरे के वध की इच्छा से गर्जना करने वाले अमर्शशील शूरवीरों की विचित्र बातें सुनायी देती थी। कोई धनुष खींचकर और कोई प्रत्याचंचर हाथ फेर कर शेष पुर्ण उच्छवास लेते हुए चिल्ला-चिल्ला कर कहते थे कि इस समय अर्जुन कहा है। कितने ही योद्धा आकाश के समान निर्मल पानी दार,संभाल कर रखी हुई, सुन्दर मूठं और तेज धार वाली तलवार को म्यान से निकालकर चलाने लगे। मन में सग्रांम के लिए पुर्ण उत्साह रखने वाले शस्त्रो शूरवीर अपनी शिक्षा के अनुसार खण्डयुद्ध और धनुर्युद्ध के मागां का प्रदर्शन करते दिखायी देते थे। दुसरे बहुत से योद्धा घंटानाद से युक्त, चन्दन चर्चित तथा सुर्वण एवं हीरो से विभूशित गदाएं उपर उठाकर पुछते थे कि पाण्डु पुत्र अर्जुन कहा है। अपनी भुजाओ से सुशोभित होने वाले कितने योद्धा अपने बल के मध्य से उन्मुक्त हो उंचे फहराते हुए इन्द्रध्वज के समान उठे हुए परिगों से सम्पुर्ण आकाश को व्याप्त कर रहे थे। दुसरे शूर-वीर योद्धा विचित्र मालाओं से अंलकृत हो ना ना प्रकार के अस्त्र-षस्त्र लिये मन में युद्ध के लिये उत्साहित होकर जहां तहां खडे थे। वे उस समय रण-क्षेत्र में शत्रुओ को ललकारते हुए इस प्रकार कहते थे कि कहां है अर्जुन? कहां है श्रीकृष्ण कहां है धमण्डी भीमसेन और कहां है उनके सारे सुहद्।तदनन्तर द्रोणाचार्य शंख बजाकर स्वयं ही अपने घोडो को उतावली के साथ हांकते और उन सैनिको का व्यूड निर्माण करते हुए इधर-उधर बडे वेग से विचर रहे थे। महाराज। युद्ध से प्रसन्न होने वाले उन समस्त सैनिको के व्युहबद्ध हो जाने पर द्रोणाचार्य ने जयद्रथ से कहा-। राजन् । तुम, भूरिश्रवा, महारथी कर्ण ,अश्‍वत्थामा, शल्य,वृषसेन तथा कृपाचार्य, एक लाख घुडसवार, साढ हजार रथ, चोदह हजार मदस्त्रावी गजराज तथा 21 हजार कवचधारी पैदल सैनिको को साथ लेकर मुझसे छः कोस की दूरी पर जाकर डटे रहो। सिंधुराज। वहां रहने पर इन्द्र आदि सम्पुर्ण देवता भी तुम्हारा सामना नही कर सकते, तो समस्त पाण्डव तो कर ही कैसे सकते है अतः तुम धेर्य धारण करो। उनके ऐसा कहने पर सिधुंराज जयद्रथ को बडा आश्रवासन मिला। वह गांधार महारथियो से घिरा हुआ युद्ध के लिये चल दिया। कवचधारी घुडसवार हाथो में प्रास लियें पूरी सावधानी के साथ उन्हें घेरे हुए चल रहे थें। राजेन्द्र। जयद्रथ के घोडे़ सवारी में बहुत अच्छा काम देते थे। वे सबके सब चवॅंर की कलॅंगी सुशोभित और सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित थे। उन सिंधुदेशीय अश्रों- की संख्या दस हजार थी।



« पीछे आगे »


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः