महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 98 श्लोक 41-57

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 13:09, 27 August 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (1 अवतरण)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

अष्‍टनवतितम (98) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: अष्‍टनवतितम अध्याय: श्लोक 41-57 का हिन्दी अनुवाद

सात्‍वकुल के श्रेष्‍ठ वीर सात्‍यकि में जो यह अस्‍त्रबल दिखायी देता है, ऐसा तो केवल परशुराम में, कार्तवीर्य अर्जुन में, धनंजय में तथा पुरुषसिंह भीष्‍म में ही देखा-सुना गया है। द्रोणाचार्य ने मन-ही-मन उसके पराक्रमी बड़ी प्रशंसा की। इनद्र के समान सात्‍यकि के उस हस्‍ताघव तथा पराक्रम को देखकर अस्‍त्रवेताओं में श्रेष्‍ठ विप्रवर द्रोणाचार्य और इन्‍द्र आदि देवता भी बडे़ प्रसन्‍न हुए । प्रजानाथ। रणभूमि में शीघ्रतापूर्वक विचरने वाले सात्‍यकि की उस फुर्ती को देवताओं, गन्धर्वो, सिद्धों और चारण समूहों ने पहले कभी नहीं देखा था । वे जानते थे कि केवल द्रोणाचार्य ही वैसा पराक्रम कर सकते हैं (परंतु उस दिन उन्‍होंने सात्‍यकि का पराक्रम भी प्रत्‍यक्ष देख लिया )। भारत । तत्‍पश्रात् अस्‍त्रवेताओं में श्रेष्‍ठ क्षत्रियसंहारक द्रोणाचार्य ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर विभिन्‍न अस्‍त्रों द्वारा युद्ध आरम्‍भ किया। सात्‍यकि ने अपने अस्‍त्रों की माया से आचार्य के अस्‍त्रों का निवारण करके उन्‍हें तीखे बाणों से घायल कर दिया । वह अद्भुत सी घटना हुई। उस रणक्षैत्र में सात्‍यकि के उस युक्ति युक्‍त अलौकिक कर्म को, जिसकी दूसरों से कोई तुलना नहीं थी, देखकर आपके रणकौशल वेता सैनिक उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। द्रोणाचार्य जिस अस्‍त्र का प्रयोग करते, उसी का सात्‍यकि भी करते थे। शत्रुओं को संताप देने वाले आचार्य द्रोण भी घबराहट छोड़‍कर सात्‍यकि से युद्ध करते रहे। महाराज् तदनन्‍तर धनुर्वेद के पारगड़त विद्वान् द्रोणाचार्य ने कुपित हो सात्‍यकि के बधके लिये एक दिव्‍यास्‍त्र प्रकट किया। शत्रुओं का नाश करने वाले उस अत्‍यन्‍त भयंकर आग्‍नेयास्‍त्र को देखकर महाधनुर्धर सात्‍यकि ने वारुणनामक दिव्‍यास्‍त्र का प्रयोग किया। उन दोनों दिव्‍यास्‍त्र धारण किये देख वहां महान् हाहाकार मच गया। उस समय आकाशचारी प्राणी भी आकाश में विचरण नहीं करते थे। वे वारुण और आग्‍नेय दोनों अस्‍त्र उन दोनों के द्वारा अपने बाणों में स्‍थापित होकर जब तक एक दूसरे के प्रभाव से प्रतिहत नहीं हो गये, तभी तक भगवान सूर्य दक्षिण से पश्चिम के आकाश में ढल गये। तब राजा युधिष्ठि, पाण्‍डुकुमार भीमसेन, नकुल और सहदेव सब ओर से सात्‍यकि की रक्षा करने लगे। धृष्‍टद्युम्‍न आदि वीरों के साथ विराट, केकय राजकुमार मत्‍स्‍य देशीय सैनिक तथा शाल्‍व देश की सेनाएं-ये सब-के-सब अनायास ही द्रोणाचार्य पर चढ़ आये। उधर से सहस्‍त्रों राजकुमार दु:शासन को आगे करके शत्रुओं से घिरे हुए द्रोणाचार्य के पास उनकी रक्षा के लिये आ पहुंचे। राजन् । तदनन्‍तर पाण्‍डवों के और आपके धनुर्धरों का परस्‍पर युद्ध होने लगा। उस समय सब लोग धूल से आवृत और बाण समूह से आच्‍छादित हो गये थे। वहां का सब कुछ उद्विग्‍न हो रहा था। सेना द्वारा उड़ायी हुई धूल से ध्‍वस्‍त होने के कारण किसी को कुछ ज्ञात नहीं होता था। वहां मर्यादाशून्‍य युद्ध चल रहा था।

इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तगर्त जयद्रथवधपर्व में द्रोण और सात्‍यकि का युद्ध विषयक अट्ठानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः