महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 114 श्लोक 37-56

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चतुदर्शाधिकशततम (114) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व:चतुदर्शाधिकशततम अध्याय: श्लोक 37-56 का हिन्दी अनुवाद

सात्‍यकि और अर्जुन ने घोड़ों को सवारों से हीन और मनुष्‍यों को रथ से वंचित करदिया है। यह देख-सुनकर मेरे पुत्र शोक में डूब रहे होगे। रणक्षेत्र में सात्‍यकि और अर्जुन द्वारा मारे गये तथा इधर-उधर भागते हुए अश्‍व समूहों को देखकर मैं मानता हूं कि मेरे पुत्र शोकदग्‍ध हो रहे होगे। पैदल सिपाहियों को रणक्षेत्र में सब ओर भागते देख मैं समझता हूं, मेरे सभी पुत्र विजय से निराश हो शोक कर रहे होगें। मेरे मन में यह बात आती हैं कि किसी से पराजित न होनेवाले दोनों वीर अर्जुन और सात्‍यकि को क्षणभर में द्रोणाचार्य की सेना उल्‍लघंन करते देख मेरे पुत्र शोकाकुल हो गये होंगे। तात ! अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के सात्‍यकि सहित अपनी सेना में घुसने का समाचार सुनकर मैं अत्‍यन्‍त मोहित हो रहा हूं। शिनिप्रवर महारथी सात्‍यकि जब कृतवर्मा की सेना को लांघकर कौरवी सेना में प्रविष्‍ट हो गयें, तब कौरवों ने क्‍या किया ?।संजय ! जब द्रोणाचार्य ने समर-भूमि में पूर्वोक्‍त प्रकार से पाण्‍डवों को रोक दिया, तब वहां किस प्रकार युद्ध हुआ ? यह सब मुझे बताओ। द्रोणाचार्य अस्‍त्रविद्या में निपुण, युद्ध में उन्‍मत होकर लड़ने वाले, बलवान् एवं श्रेष्‍ठ वीर हैं। पाञ्जालों सैनिकों ने उस समय रणक्षेत्र में महाधनुर्धर द्रोण को किस प्रकार घायल किया ? क्‍योकि वे द्रोणाचार्य से वैर बांधकर अर्जुन की विजय-की अभिलाषा रखते थे।संजय ! भरद्वाज के पुत्र महारथी अश्‍वत्‍थामा भी पाञ्जालों से द्दढतापूर्वक वैर बांधे हुए थे। अर्जुन ने सिन्‍धुराज जयद्रथ का वध करने के लिये जो-जो उपाय किया, वह सब मुझसे कहो; क्‍योंकि तुम कथा कहने में कुशल हो। संजय ने कहा-भरतश्रेष्‍ठ ! यह सारी विपति आपको अपने ही अपराध से प्राप्‍त हुई हैं। वीर ! इसे पाकर निम्‍न कोटि के मनुष्‍यों की भांति शोक न किजिये। पहले जब आपके बुद्धिमान सुहद् विदुर आदि ने आपसे कहा था कि राजन् ! आप पाण्‍डवों के राज्‍य का अपहरण न किजिये, तब आपने उनकी यह बात नहीं सुनी थी। जो हितेषी सुहदोंकी बात नहीं सुनता हैं, वह भारी संकट में पड़कर आपके ही समान शोक करता है। राजन् ! दशाईनन्‍दन भगवान् श्रीकृष्‍ण ने पहले आप से शान्ति के लिये याचना की थी; परंतु आपकी ओर से उन महायशस्‍वी श्रीकृष्‍ण की वह इच्‍छा पूरी न की गयी।। नृपश्रेष्‍ठ सम्‍पूर्ण लोकों के तत्‍वश तथा सर्वलोकेश्रर भगवान् श्रीकृष्‍ण ने जब यह जान लिया कि आप सर्वथा सद्रुणशून्‍य हैं, अपने पुत्रों पर पक्षपात रखते हें, धर्म के विषय में आपके मन में दुविधा बनी हुई हैं, पाण्‍डवों के प्रति आपके हदय में डाह है, आप उनके प्रति कुटिलतापूर्ण मनसूबे बांधते रहते हैं और व्‍यर्थ ही आर्त मनुष्‍यों के समान बहुत-सी बातें बनाते हैं, तब उन्‍होंने कौरव-पाण्‍डव के महान् युद्ध का आयोजन किया।मानद ! अपने ही अपराध से आपके समाने यह महान् जनसंहार प्राप्‍त हुआ है। आपको यह सारा दोष दुर्योधन पर नहीं मढ़ना चाहिये। भारत ! मुझे तो आगे, पीछे या बीच में आपका कोई भी शुभ कर्म नहीं दिखायी देता। इस पराजय की जड़ आप ही है। इसलिये स्थिर होकर और लोक के नियत स्‍वभाव को जानकर देवासुन-संग्राम के समान भयंकर इस कौरव-पाण्‍डव युद्ध का यथा‍र्थ वृतान्‍त सुनिये।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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