महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 21 श्लोक 21-40

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 11:16, 30 August 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (1 अवतरण)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

एकविंश (21) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: एकविंश अध्याय: श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद

राधा पुत्र कर्ण क्रमशः शत्रु सेना के मध्य भाग में पहुँचकर अपने उत्तम धनुष को कम्पित करता हुआ पैने बाणों से शत्रुओं के सिर काट-काटकर गिराने लगा। उस समय देहधारियों के चमड़े और कवच कट-कटकर भूतल पर गिर पड़े थे। जैसे घुड़सवार घोड़ों को कोड़े से पीटता है,उसी प्रकार कर्ण धनुष से छूटकर कवच,शरीर और प्राणों को मथ डालने वाले बाणों द्वारा शत्रुओं के हस्तत्राण पर भी प्रहार करने लगा । जैसे सिंह अपनी दृष्टि में पड़े हुए मृगों को वेगपूर्वक मसल डालता है,उसी प्रकार कर्ण ने अपने बाणों की पहुँ के भीतर आये हुए पाण्डव,संृजय तथा पांचाल योद्धाओं को बडत्रे वेग से रौंद डाला। मान्यवर ! तब पांचाल राज धृष्टद्युम्न,द्रौपदी के पुत्र तथा नकुल,सहदेव और सात्यकि-इन सबने उक साथ जाकर कर्ण पर आक्रमण किया। उस समय जब कौरव,पांचाल तथा पाण्डव योद्धा परिश्रम पूर्वक युद्ध में लगे हुए थे,सभी सैनिक रणभूमि में अपने प्राणों का मोह छोड़कर एक दूसरे को मारने लगे। माननीय नरेश ! कमर कसे,कवच बाँधे तथा शिरस्त्राण एवं आभूषण धारण किये हुए महाबली योद्धा गरजते,उछलते-कूदते और एक दूसरे को ललकारते हुए कालदण्ड के समान गदा,मुसल और परिघ उठाये परस्पर धावा बोल रहे थे। तदनन्तर वे एक दूसरे का वध करने,परस्पर चोट खाकर धराशायी होने तथा शरीर से रक्त बहाने लगे । उनके मस्तिष्क,नेत्र और आयुध नष्ट हो गये थे। कितने ही वीरों के शरीर अस्स्त्र-शस्त्रों से व्याप्त एवं प्राणशून्य होकर गिर पड़े थे;परंतु उनके खुले हुएमुख में जो रक्त-रंजित दाँत थे,उनके द्वारा वे फटे हुए अनार के फलों जैसे जान पड़ते थे और उस तरह के मुखों द्वारा वे जीवित से प्रतीत होते थे। महासागर के समान उस विशाल युद्ध स्थल में परस्पर कुपित हुए अन्यान्य योद्धा,परशु,पट्टिश,खंग,शक्ति,भिन्दिपाल,नखर,प्रास तथा तोमरों द्वारा यथा सम्भव एक दूसरे का छेदन-भेदन,विदारण,क्षेपण,कर्तन और हनन करने लगे। जैसे लाल चन्दन के वृक्ष कट जाने पर रक्त वण का रस बहाने लगता है,उसी प्रकार परस्पर के आघात से मारे गये योद्धा खून से लथपथ एवं प्राणशून्य होकर युद्ध भूमि में पड़े थे और अपने अंगों से रक्त बहा रहे थे। रथियों से रथी,हाथियों से हाथी,पैदल मनुष्यों से मनुष्य और घोड़ों से घोडत्रे माने ताकर रणभूमि में सहस्त्रों की संख्या में पड़े थे। ध्वज,मस्तक,छत्र,हाथी की सूंड़ तथा मनुष्यों की भुजाएँ-ये सबके सब क्षुरों,भल्लों तथा अर्धचन्द्रों द्वारा कटकर भूतल पर पड़े थे। घुड.सवारों ने कितने की शूरवीरों को मार डाला और बड़े-बड़े दन्तार हाथियों की सूँड़ें काट लीं । सूँड़ कट जाने पर उन हाथियों ने युद्ध स्थल में बहुत से मनुष्यों,हाथियों,रथों और घोड़ों को कुचल डाला । फिर वे पताका और ध्वजों सहित टूटे-फूटे पर्वतों के समान पृथ्वी पर गिर पड़े।पैदल वीरों द्वारा उछल-उछलकर मारे गये और मारे जाते हुए कितने ही हाथी और रथ सवारों सहित सब ओर पड़े थे। कितने ही घुड़सवार बड़ी उतावली के साथ पैदल वीरों के पास जाकर उनके द्वारा मारे गये तथा झुंड-के-झुंड पैदल सैनिक भी घुड़सवारों की चोट से मारे जाकर युद्ध स्थल में सदा के लिए सो गये थे। उस महासमर में मारे गये योद्धाओं के मुख और शरीर कुचले हुए कमलों और कुम्हलायी हुई मालाओं के समान श्रीहीन हो गये थे। नरेश्वर ! हाथी,घोड़े और मनुष्यों के अत्यन्त सुन्दर रूप भी वहाँ कीचड़ में सने हुए वस्त्रों के समान घिनौने हो गये थे । उनकी ओर देखना कठिन हो रहा था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में संकुल युद्ध विषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः