महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 27 श्लोक 25-43

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सप्तविंश (27) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 25-43 का हिन्दी अनुवाद

राजन् ! फिर महारथी धनंजय ने रजतमय पंख वाले क्षुरप्र से महामना मित्रदेव के मसतक को काट डाला। साथ ही अत्यन्त कुपित होकर अर्जुन ने सुशर्मा के गले की हँसली पर भी गहरी चोट पहुँचायी। फिर तो क्रोध में भरे हुए सभी संशप्तक दसो दिशाओं को अपनी गर्जना से प्रतिध्वनि करते हुए अर्जुन को चारों ओर से घेरकर अपने अस्स्त्र-शस्स्त्रों द्वारा पीडत्रा देने लगे। उनसे पीडि़त होकर इन्द्र के तुल्य पराक्रमी तथा अमेय आत्मबल से सम्पन्न्ा महारथी अर्जुन ने ऐन्द्रास्त्र प्रकट किया। प्रजानाथ ! फिर तो वहाँ हजारों बाण प्रकट हामने लगे। माननीय भरतवंशी प्रजापालक नरेश ! उस समय कट-कटकर गिरने वाले ध्वज,धनुष,रथ,पताका,तरकश,जूए,धुरे,पहिए,जोत,बागडोर,कुबर,वरूध ( रथ का चर्ममय आवरण ),बाण, घोड़े, प्रास, ऋष्टि, गदा,परिघ,शक्ति,तोमर,पट्टिश,चक्रयुक्त,शतघ्नी,बाँह-जाँघ,कणठसूत्र,अंगद,कुयूर,हार,निष्क,कवच,छत्र,व्यजन,और मुकुट सहित मसतकों का महान् शब्द युद्ध स्थल में जहाँ-तहाँ सब ओर सुनाई देने लगा। पृथ्वी पर गिरे हुए कुण्डल और सुन्दर नेत्रों से युक्त पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मस्तक आकाश में ताराओं के समूह ही भँाति दिखायी देते थे। वहाँ मारे गये राजाओं के सुन्दर हारों से सुशोभित,उत्तम वस्त्रों से सम्पन्न तथा चन्दन से चर्चित शरीर पृथ्वी पर पड़े देखे जाते थे। उस समय वहाँ मारे गये राजकुमारों तथा महाबली क्षत्रियों की लाशों से वह युद्ध स्थल गन्धर्व नगर के समान भयानक जरन पड़ता था। समरांगण में टूट-फूटकर गिरे हुए पर्वतों के समान धराशायी हुए हाक्षियों और घोड़ों के कारण वहाँ की भूमि पर चलना फिरना असम्भव हो गया था। अपने भल्लों से शत्रु सैनिकों को तथा उनके हाथी-घोड़े के महान् समुदाय को मारते-गिराते हुए महामना पाण्डु कुमार अर्जुन के रथ के पहियों के लिये मार्ग नहीं मिलता था। मान्यवर ! उस संग्राम में रक्त की कीच मच गयी थी। उसमें विचरते हुए अर्जुन के रथ के पहिये मानो भय से शिथिल होते जा रहे थे। मन और वायु के समान वेगशाली घोड़े भी वहाँधँसते हुए पहियों को बड़े परिश्रम से खींच पाते थे। धनुर्धर पाण्डु कुमार की मार खाकर आपकी वह सारी सेना प्रायः पीठ दिखाकर भाग चली।वहाँ क्षण भर के लिए भी ठहर न सकी उस समय समरांगण में उन बहुसंख्यक संशप्तकगणों को परास्त करके विजयी कुन्ती कुमार अर्जुन धूमरहित प्रज्वलित अग्नि के समान शोभा पा रहे थे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में संशप्तकों की पराजय विषयक सत्तईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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