महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-20

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एकोनत्रिंश (29) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर के द्वारा दुर्योधन की पराजय

धृतराष्ट्र बोले-संजय ! तुमसे मैंने अब तक अत्यन्त तीव्र और दुःसह दुःख देने वाली बहुत-सी घटनाएँ सुनी हैं। अपने पुत्रों के विनाश की बात भी सुन ली। सूत ! जैसा तुम मुझसे कह रहे हो और जिस प्रकार वह युद्ध सम्पन्न हुआ,उसे देखते हुए मेरा यह दृढ़ निश्चय हो रहा है कि अब कुरुवंशी जीवित नहीं रहे। सुनता हूँ महारथी दुर्योधन भी वहाँ रथहीन कर दिया गया। धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने उसके साथ किस प्रकार युद्ध किया अािवा राजा दुर्योधन ने युधिष्ठिर के प्रति कैसा बर्ताव किया ? संजय ! अपरान्ह काल में किस प्रकार वह रोमांचकारी युद्ध हुआ था,वह मुझे ठीक-ठीक बताओ;क्योंकि तुम उसका वर्णन करने में कुशल हो।

संजय ने कहा-प्रजानाथ ! जब सारी सेनाएँ विभिन्न भागों में बँटकर जूझने और मरने लगीं,तब आपका पुत्र दुर्योधन दूसरे रथ पर बैइकर विषधर सर्प के समान अत्यन्त कुपित हो उठा। सारी सेनाओं पर दृष्टिपात करके क्रोध में उसकी अँाखें घूमने लगीं। उस समय युद्ध स्थल में धर्मपुत्र कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर वज्रधारी इन्द्र के समान अपनी दिव्य कानित से प्रकाशित होत हुए सेना के बीच में खडत्रे थे। भारत ! उन धर्मराज युधिष्ठिर को देखकर दुर्योधन ने तुरंत अपने सारथि से कहा-सारथे ! चलो,चलो,जहाँ पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर कवच बांधकर छत्र धारण किये सुशोभित हो रहे हैं,वहाँ मुझे शीघ्र पहुँचा दो। राजा दुर्योधन से इस प्रकार प्रेरित होकर सारथि ने उस उत्तम रथ को राजा युधिष्ठिर के सामने बढ़ाया। तब मदस्त्रावी हाथी के समान कुपित हुए राजा युधिष्ठिर ने भी अपने सारथि को आज्ञा दी,जहाँ दुर्योधन है,वहीं चलो ‘। इस प्रकार वे महाधनुर्धर,महावीर और महारथी दोनों रणदुर्मद बन्धु एक दूसरे के सामने आ गये और क्रोध पूर्वक आपस में भिड़कर युद्ध स्थल में परस्पर बाणों की वर्षा करने लगे। मान्यवर ! तदनन्तर युद्धस्थल में राजा दुर्योधन ने सान पर चढत्राकर तेज किये हुए भलल से धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर का धनुष काअ दिया। राजा युधिष्ठिर उस अपमान को सहन न कर सके। उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। उनकी आँखें रोष से लाल हो गयीं। उन्होंने उस कटे हुए धनुष को फेंककर दूसरा हाथ में ले लिया। फिर उन धर्मपुत्र ने सेना के मुहाने पर दुर्योधन के ध्वज और धनुष को काअ डाला। तत्पश्चात् दुर्योधन ने दूसरा धनुष ल्रकर युधिष्ठिर को बींध डाला। वे दोनों वीर अत्यनत क्रोध में भरकर एक दूसरे पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। परस्पर विजय की इच्छा से रोष में भरे हुए दो सिंहों के समान दहाड़ते अथवा दो सँाड़ों के समान गरजते हुए पे रणभूमि में एक-दूसरे पर चोट करते थे। वे दोनों महारथी एक दूसरे का अनतर ढुँढ़ते हुए रण भूमि में विचर रहे थे। महाराज ! धनुष को पूर्णतः खींचकर छोड़े गये बाणों द्वारा वे दोनों वीर क्षत-विक्षत होकर फूले हुए दो पलाश के वृक्षों के समान शोभा पा रहे थे। राजन् ! तब वे दोनों नरेश बारंबार सिंहनाद करते हुए उस महासमर में तालियां बजाने,धनुष की टंकार करने और उत्तम शंखनाद फैलाने लगे। महाराज ! वे दोनों एक दूसरे को अत्यन्त पीडत्रा दे रहे थे। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने वज्र के समान वेगशाली एवं दुर्जय तीन बाणों द्वारा आपके पुत्र की छाती में क्रोध पूर्वक प्रकार किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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