महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 31 श्लोक 17-35

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एकत्रिंश (31) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद

संजय ! सेना को शिविर की ओर लौटाने के बाद जब रात बीती और प्रातःकाल पुनः संग्राम आरम्भ हुआ,उस समय वैकर्तन कर्ण ने वहाँ किस प्रकार युद्ध किया तथा समसत पाण्डवों ने सूत पुत्र कर्ण के साथ किस प्रकार युद्ध आरम्भ किया ? ‘अकेला महाबाहु कर्ण सृंजयों सहित समस्त कुन्ती पुत्रों को मार सकता है। युद्ध में कर्ण का बाहुबल इन्द्र और विष्णु के समान है। उसके अस्त्र-शस्त्र भयंकर हैंतथा उस महामनस्वी वीर का पराक्रम भी अद्भुत हैं। ‘यह सब सोचकर राजा दुर्योधन संग्राम में कर्ण का सहारा ले मतवाला हो उठा था। किंतु उस समय पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन को अत्यन्त पीडि़त होते और पाण्डु पुत्रों को पराक्रम प्रकट करते देखकर भी महारथी कर्ण ने क्या किया ? मूर्ख दुर्योधन संग्राम में कर्ण का आश्रय लेकर पुनः पुत्रों-सहित कुन्ती कुमारों और श्रीकृष्ण को जीतने के लिये उत्साहित हुआ था। अहो ! यह महान् दुःख की बात है कि वेगशाली वीर कर्ण रण भूमि में पाण्डवों से पार न पा सका। अवश्य दैव ही सबका परम आश्रय है। अहो ! द्यूतक्रीड़ा का यह घोर परिणाम इस समय प्रकट हुआ है। संजय ! आश्चर्य है कि मैंने दुर्योधन के कारण बहुत से तीव्र एवं भयंकर दुःख,जो कांटो के समान कसक रहे हैं,सहन किये हैं। तात ! दुर्योधन उन दिनों शकुनि को बड़ा नीतिज्ञ मानता था तथा वेगशाली वीर कर्ण भी नीतिज्ञ है,ऐसा समझकर राजा दुर्योधन उसका भी भक्त बना रहा। संजय ! इस प्रकार वर्तमान महान् युद्धों में जो मैं प्रतिदिन ही अपने कुछ पुत्रों को मारा गया और कुछ को पराजित हुआ सुनता आ रहा हूँ,इससे मुझे यह विश्वास हो गया है कि समरांगण में कोई भी वीर ऐसा नहीं है जो पाण्डवों को रोक सके। जैसे लोग स्त्रियों के बीच में निर्भय प्रवेश कर जाते हैं,उसी प्रकार पाण्डव मेरी सेना में बेखटके घुस जाते हैं। अवश्य इस विषय में दैव ही अत्यन्त प्रबल हैं।

संजय ने कहा- राजन् ! पूर्वकाल में आपने जो द्यूतक्रीड़ा आदि धर्मसंगत कारण उपस्थित किये थे,उन्हें याद तो कीजिये। जो मनुष्य बीती हुई बात के लिए पीछे चिनता करता है,उसका वह कार्य तो सिद्ध होता नहीं,केवल चिन्ता करने से वह स्वयं नष्ट हो जाता है। पाण्डवों के राज्य के अपहरण रूपी इस कार्य में सफलता मिलनी आपके लिये दूर की बात थी। यह जानते हुए भी आपने पहले इस बात का विचार नहीं किया कि यह उचित है या अनुचित। राजन् ! पाण्डवों ने तो आपसे बारंबार कहा था कि ‘आप युद्ध न छेडि़ये। ‘किंतु प्रजानाथ ! आपने मोहवश उनकी बात नहीं मानी। आपने पाण्डवों पर भयंकर अत्याचार किये हैं। आपके ही कारण राजाओं द्वारा यह घोर नरसंहार हो रहा है। भरतश्रेष्ठ ! वह बात तो अब बीत गई। उसके लिए शोक न करें। युद्ध का सारा वृतान्त यथावत् रूप से सुनें। मैं उस भयंकर विनाश का वर्णन करता हूँ। जब रात बीती और प्रातःकाल हो गया,तब महाबाहु कर्ण राजा दुर्योधन के पास आया और उससे मिलकर इस प्रकार बोला। कर्ण ने कहा-राजन् ! आज मैं यशस्वी पाण्डु पुत्र अर्जुन के साथ संग्राम करूँगा। या तो में ही उस वीर को मार डालूँगा या वही मेंरा वध कर डालेगा।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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