महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 56 श्लोक 111-147

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षट्पञ्चाशत्तम (56) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: षट्पञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 111-147 का हिन्दी अनुवाद

उस समय अर्जुन ने बाण-वर्षा करने वाले उस वीर की परिघ के समान मोटी और सुदृढ़ भुजाओं को दो अर्धचन्द्रा कार बाणों से काट डाला और एक छुरे के द्वारा पूर्ण चन्द्रामा के समान मनोहर मुखवाले उसके मस्तबक को भी धड़ से अलग कर दिया। फिर तो वह रक्त का झरना-सा बहाता हुआ अपने वाहन से नीचे गिर पड़ा, मानो मैनसिल के पहाड़ का शिखर वज्र से विदीर्ण होकर भूतल पर आ गिरा हो। उस समय सब लोगों ने देखा कि सुदक्षिण का छोटा भाई काम्बोूजदेशीय वीर जो देखने में अत्यसन्तो प्रिय, कमल-दल के समान नेत्रों से सुशोभित तथा सोने के खम्भे‍ के समान ऊंचा कद का था, मारा जाकर विदीर्ण हुए सुवर्णमय पर्वत के समान धरती पर पड़ा है। तदनन्तदर पुन: अत्यदन्तव घोर एवं अभ्दुतत युद्ध होने लगा। वहां युद्ध करते हुए योद्धाओं की विभिन्न अवस्था एं प्रकट होने लगीं। प्रजानाथ। एक-एक बाण से मारे गये रक्तरंजित काबुली घोड़ों, यवनों और शकों के खून से वह सारा युद्धस्थनल लाल हो गया था । रथों के घोड़े और सारथि, घोड़ों के सवार, हाथियों के आरोही, महावत और स्व यं हाथी भी मारे गये। महाराज। इन सबने परस्पोर प्रहार करके घोर जनसंहार मचा दिया था । उस युद्ध में जब सव्यपसाची अर्जुन ने शत्रुओं के पक्ष और प्रपक्ष दोनों को मार गिराया, तब द्रोणपुत्र अश्वत्थांमा अपने सुवर्णभूषित विशाल धनुष को हिलाता और अपनी किरणों को धारण करने वाले सूर्यदेव के समान भयंकर बाण हाथ में लेता हुआ तुरंत विजयी वीरों में श्रेष्ठन अर्जुन के सामने आ पहुंचा। उस समय क्रोध और अमर्ष से उसका मुंह खुला हुआ था, नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे तथा वह बलवान् अश्वत्थासमा अन्तरकाल में किकर नामक दण्ड धारण करने वाले कुपित यमराज के समान जान पड़ता था। महाराज। तत्प श्चात् वह समूह-के-समूह भयंकर बाणों की वर्षा करने लगा। उसके छोड़े हुए बाणों से व्यपथित हो पाण्डूव सेना भागने लगी। माननीय प्रजानाथ। वह रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण की ओर देखकर ही पुन: उनके ऊपर भयानक बाणों की वृष्टि करने लगे। महाराज अश्वत्थाखमा के हाथों से छूटकर सब ओर गिरने वाले उन बाणों से रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ही ढक गये। तत्परश्चात् प्रतापी अश्वत्थाठमा ने सैकड़ां तीखे बाणों द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों को युद्धस्थगल में निश्चेपष्टे कर दिया। चराचर जगत् की रक्षा करने वाले उन दोनों वीरों को बाणों से आच्छा्दित हुआ देख स्थाकवर-जगम समस्त् प्राणी हाहाकार कर उठे। सिद्धों और चारणों के समुदाय सब ओर से वहां आ पहुंचे और यह चिन्तरन करने लगे कि ‘आज सम्पूिर्ण जगत् का कल्याण हो’। राजन्। समरागण में श्रीकृष्ण और अर्जुन को बाणों द्वारा आच्छाददित करने वाले अश्वत्थायमा जैसा पराक्रम उस दिन देखा गया, वैसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। महाराज। मैंने रणभूमि में अश्वत्था मा के धनुष की शत्रुओं को भयभीत कर देनेवाली टंकार बारंबार सुनी, मानो किसी सिंह के दहाड़ने की आवाज हो रही हो। जैसे मेघों की घटा के बीच में बिजली चमकती है, उसी प्रकार युद्ध में दायें-बायें बाण वर्षा पूर्वक विचरते हुए अश्वत्थाामा के धनुष की प्रत्य च्चा भी प्रकाशित हो रही थी। युद्ध में फुर्ती करने और दृढ़तापूर्वक हाथ चलाने वाले महायशस्वीय पाण्डु नन्दान अर्जुन द्रोणकुमार की ओर देखकर भारी मोह में पड़ गये और अपने पराक्रम को प्रतिहत हुआ मानने लगे। राजन्। उस समरागण में अश्वत्थाओमा के शरीर की ओर देखना भी अत्यपन्ता कठिन हो रहा था। राजेन्द्र । इस प्रकार अशवत्थामा और अर्जुन में महान् युद्ध आरम्भत होने पर जब महाबली द्रोणपुत्र बढ़ने लगा और कुन्तीेकुमार अर्जुन का पराक्रम मन्दद पड़ने लगा, तब भगवान् श्रीकृष्ण को बड़ा क्रोध हुआ। राजन्। वे रोष से लंबी सांस खींचते और अपने नेत्रों द्वारा दग्धब सा करते हुए युद्धस्थकल में अश्वोत्थामा और अर्जुन की ओर बारंबार देखने लगे।
तत्पबश्चात् क्रोध में भरे हुए श्रीकृष्णअ उस समय अर्जुन से प्रेमपूर्वक बोले-‘पार्थ। युद्धस्‍थल में तुम्हा्रा यह अपेक्षायुक्त अभ्दुहत बर्ताव देख रहा हूं। भारत। आज द्रोणपुत्र अश्वत्थाेमा तुम से सर्वथा बढ़ता जा रहा है। ‘अर्जुन। तुम्हा्री शारीरिक शक्ति पहले के समान ही ठीक है न अथवा तुम्हातरी भुजाओं में पूर्ववत् बल तो है न तुम्हाकरे हाथ में गाण्डी व धनुष तो है न और तम रथ पर ही खड़े हो न। ‘क्या‍ तुम्हाशरी दोनों भुजाएं सकुश्लथ हैं तुम्हा‍री मुट्टी तो ढीली नहीं हो गयी है अर्जुन। मैं देखता हूं कि युद्ध स्थवल में अश्वजत्थाममा तुम से बढ़ा जा रहा है । ‘भरतश्रेष्ठ । कुन्तीकनन्द न। यह मेरे गुरु का पुत्र है, ऐसा मानकर तुम इसके प्रति उपेक्षा भाव न करो। यह समय उपेक्षा करने का नहीं है’। भगवान् श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन के चौदह भल्लर हाथ में लेकर शीघ्रता करने के अवसर पर फुर्ती दिखायी और अश्वत्था मा के धनुष को काट डाला। साथ ही उसके ध्वशज, छत्र, पताका, खड्ग, शक्ति और गदा के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तदनन्तसर अश्वशत्थाेमा के गले की हंसली पर ‘वत्स,दन्त ’ नामक बाणों द्वारा गहरी चोट पहुंचायी। महाराज। उस आघात से भारी मूर्छा में पड़कर अश्व त्थाीमा ध्वोजदण्ड के सहारे लूढ़क गया। शत्रु से अत्य।न्ते पीडित एवं अचेत हुए अश्वेत्था मा को उसका सारथि अर्जुन से उसकी रक्षा करता हुआ रणभूमि से दूर हटा ले गया। भारत। इसी समय शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन ने आपकी सेना के सैकड़ों और हजारों योद्धाओं को आपके वीर पुत्र के देखते-देखते मार डाला। राजन्। इस प्रकार आपकी कुमन्त्र णा के फलस्वेरुप शत्रुओं के साथ आपके योद्धाओं का यह विनाशकारी, भयंकर एवं क्रूरतापूर्ण संग्राम हुआ। उस समय रणभूमि में कुन्तीओकुमार अर्जुन ने संशप्तएकों का, भीमसेन ने कौरवों का और कर्ण ने पाच्चाल सैनिकों का क्षणभर में संहार कर डाला। राजन्। जब बड़े-बड़े वीरों का विनाश करने वाला वह भीषण संग्राम हो रहा था, उस समय चारों ओर असंख्य कबन्ध़ खड़े दिखायी देते थे। भरतश्रेष्ठर। संग्राम में युधिष्ठिर पर बहुत अधिक प्रहार किये गये थे, जिससे उन्हें गहरी वेदना हो रही थी। वे रण भूमि से एक कोस दूर हटकर खड़े थे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्ध विषयक छप्पनवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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