महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-18

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चतुर्थ (4) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

मरुत्त के पूर्वजों का परिचय देते हुए व्यासजी के द्वारा उनके गुण, प्रभाव एवं यज्ञ का दिग्दर्शन

युधिष्ठर ने पूछा- धर्म के ज्ञाता, निष्पाप महर्षि द्वैपायन! मैं राजर्षि मरुत्त की कथा और उनके गुणों का कीर्तन सुनना चाहता हँ। कृपया मुझसे कहिये। व्यासजी ने कहा- तात! सत्ययुग में राजदण्ड धारण करने वाले शक्क्तिशाली वैवस्वत मनु एक प्रसिद्ध राजा थे। उनके पुत्र महाबाहु प्रसन्धि के नाम से विख्यातथे। प्रसन्धि के पुत्र क्षुप और क्षुप के पुत्र शक्तिशाली महाराज इक्ष्वाकु हुए। राजन्! इक्ष्वाकु के सौ पुत्र हुए, जो बड़े धार्मिक थे। प्रभावशाली इक्ष्वाकु ने उन सभी पुत्रों को इस पृथ्वी का पालक बना दिया। धनुर्धर वीरों का आदर्श था। भारत! विंश के कल्याणमय पुत्र का नाम विविंश हुआ। राजन्! विविंश के पन्द्रह पुत्र हुए। वे सब-के-सब धनुर्विद्या पराक्रमी, ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी, दान-धर्मनारायण, शान्त और सर्वदा मधुर भाषण करने वाले थे। इन सबमें जो ज्येष्ठ था, उसका नाम खनीनेत्र था। वह अपने उन सभी छोटे भाइयों को बहुत कष्ट देता था। खनीनेत्र पराक्रमी होने के कारण निष्कण्टक राज्य को जीतकर भी उसकी रक्षा न कर सका; क्योंकि प्रजा का उसमें अनुराग न था। राजेंद्र! उसे राज्य से हटाकर प्रजा ने उसी के पुत्र सुवर्चा को राजा के पद पर अभिषिक्त कर दिया। उस समय प्रजावर्ग को बड़ी प्रसन्नता हुई।
सुवर्चा अपने पिता की वह दुदर्शा, वह राज्य सेनिष्कासन देखकर सावधान हो नियमपूर्वक प्रजा के हित की इच्छा से सबके साथ उत्तम बर्ताव करने लगे। वे ब्राह्मणों के प्रति भक्ति रखते, सत्य बोलते, बाहर-भीतर से पवित्र रहते ओर मन तथा इन्द्रियां को अपने वश में रखते थे। सदा धम्र में लगे रहने वाले उन मनस्वी नरेश पर प्रजाजनों का विशेष अनुराग था। किंतु केवल धर्म में ही प्रवृत्त रहने के कारण कुछ ही दिनों में राजा का खजाना खाली हो गया और उनके वाहन आदि भी नष्ट हो गये। उनका खजाना खली हो गया, यह जानकर सामन्त नरेश चारों ओर से धावा करके उन्हें पीड़ा देने लगे। उनको कोष और घोड़े आदि वाहन तो नाष्ट हो ही गये थे। बहुसंख्यक शत्रुओं ने एक साथ धावा करके उन्हें सताना आरम्भ कर दिया। इससे राजा सुवर्चा अपने सेवकों और पुरवासियों सहित भारी संकट में पड़ गये।
युधिष्ठिर! सेना और खजाना नष्ट हो जाने पर भी वे आक्रमणकारी शत्रु सुवर्चा का वध न कर सके, क्योंकि वे राजा नित्य धर्मपरायण और सदाचारी थे। जब वे नरेश नगरवासियों सहित भारी विपत्ति में पड़ गये, तब उन्होंने अपने हाथ को मुँह से लगाकर उसे शंक की भाँति बजाया। इससे बहुत बड़ी सेना प्रकट हो गयी। राजन! उसी की सहायता से उन्होंने अपने राज्य सीमा पर निवास करने वाले सम्पूर्ण शत्रु नरेशों को परास्त कर दिया। इसी कारण से अर्थात कर का धमन करने (हाथ को बजाने) से उनका नाम करन्धम हो गया। करन्धम के त्रेतायुग के आरम्भ में एक कान्तिमान पुत्र हुआ, जो कारन्धम कहलाया। वह इन्द्र से किसी भी बात में कम नहीं था। उसे परास्त करना देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन था। उस समय के सभी भूपाल कारन्ध के अधीन हो गये थे। वह अपने सदाचार और बल के द्वारा उन सबका सम्राट हो गया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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