महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 27-38

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अष्टम (8) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 27-38 का हिन्दी अनुवाद

इस प्रकार उन पिनाकधारी, महादेव, महायोगी, अविनाशी, हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले, वरदायक, त्र्यम्बक, भुवनेश्वर, त्रिपुरासुर को मारने वाले, त्रिनेत्रधारी, त्रिभुवन के स्वामी, महान बलवान, सब जीवों की उत्पत्ति के कारण, सबको धारण करने वाले, पृथ्वी का भार सँभाल ने वाले, जगत के शासक, कल्याणकारी, सर्वरूप, शिव, विश्वेश्वर, जगत को उत्पन्न करने वाले, पार्वती के पति, पशुओं के पालक, विश्व रूप, महेश्वर, विरूपाक्ष, दस भुजाधारी, अपनी ध्वजा में दिव्य वृषभ का चिन्ह धारण करने वाले, उग्र, स्थाणु, शिव, रुद्र, शर्व, गौरीश, ईश्वर, शितिकण्ठ , अजन्मा, शुक्र, पृथु, पृथुहर, वर, विश्वरूप, विरूपाक्ष, बहुरूप, उमापति, कामदेव को भस्म करने वाले, हर, चतुर्मुख एवं शरणागतवत्सल महादेवजी को सिरसे प्रणाम करके उनके शरणापन्न हो जाना। (और इस प्रकार स्तुति करना)- जो अपने तेजस्वी श्रीविग्रह से प्रकाशित हो रहे हैं, दिव्य आभूष्णों से विभूषित हैं, आदि अन्त से रहित, अजन्मा, शम्भु, सर्वव्यापी, ईश्वर, त्रिगुणरहित, उद्वेगशून्य, निर्मल, ओज एवं तेज की निधि एवं सबके पाप और दु:ख को हर लेने वाले हैं, उन भगवान शंकर को हाथ जोड़ प्रणाम करके मैं उनकी शरण में जाता हूँ।
जो सम्माननीय, निश्चल, नित्य, कारणरहित, निर्लेप और अध्यात्मतत्त्व के ज्ञाता हैं, उन भगवान शिव के निकट पहुँचकर मैं बारंबार उन्हीं की शरण में जाता हूँ। अध्यात्मतत्त्व का विचार करने वाले ज्ञानी पुरुष मोक्षतत्त्व में जिनकी स्थिति मानते हैं तथा तत्त्वमार्ग में परिनिष्ठित योगीजन अविनाशी कैवल्य पद को जिनका स्वरूप समझते हैं और आसक्तिशून्य समदर्शी महात्मा जिन्हें सर्वत्र समान रूप से स्थित समझते हैं, उन योनिरहित जगत्कारणभूत निर्गुण परमात्मा शिव की मैं शरण लेता हूँ। जिन्होंने सत्यलोक के ऊपर स्थित होकर भू आदि सात सनातन लोकों की सृष्टि की है, उन स्थागुणरूप सनातन शिव की मैं शरण लेता हूँ। जो भक्तों के लिये सुलभ और दूर (विमुख) रहने वाले लोगों के लिये दुर्भभ हैं, जो सबके निकट और प्रकृति से परे विराजमान हैं, उन सर्वलोकव्यापी महादेव शिव को मैं नमस्कार करता और उनकी शरण लेता हूँ।
पृथ्वीनाथ! इस प्रकार वेगशाली महात्मा महादेवजी को नमस्कार करके तुम वह सुवर्ण-राशि प्राप्त कर लोगे। जो लोग भगवान शंकर में अपने मन को एकाग्र करते हैं, वे तो गणपति पद को भी प्राप्त कर लेते हैं, फिर सुवर्णमय पात्र पा लेना कौन बड़ी बात है। अत: तुम शीध्र वहाँ जाओ, विलम्ब न करो। हाथी, घोड़े और ऊँट आदि के साथ तुम्हें वहाँ महान लाभ प्राप्त होगा। तुम्हारे सेवक लोग सुवर्ण लाने के लिये वहाँ जायँ। उनके ऐसा कहने पर करन्धम के पौत्र मरुत्त ने वैसा ही किया। उन्होंने गंगाधार महादेवजी को नमस्कार करके उनकी कृपा से कुबेर की भाँति उत्तम धन प्राप्त कर लिया। उस धन को पाकर संवर्त की आज्ञा से उन्होंने यज्ञ शालाओं तथा अन्य सब सम्भारों का आयोजन किया।
तदनन्तर राजा ने अलौकिक रूप से यज्ञ की सारी तैयारी आरम्भ की। उनके कारीगरों ने वहाँ रहकर सोने के बहुत-से पात्र तैयार किये। उधर बृहस्पति ने जब सुना कि राजा मरुत्त को देवताओं से भी बढ़कर सम्पत्ति प्राप्त हुई है, तब उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। वे चिन्ता के मारे पीले पड़ गये और यह सोचकर कि ‘मेरा शत्रु संवर्त बहुत धनी हो जायगा’ उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया। देवराज इन्द्र ने जब सुना कि बृहस्पतिजी अत्यन्त संतप्त हो रहे हैं, तब वे देवताओं को साथ लेकर उनके पास गये और इस प्राकर पूछने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अश्वमेधपर्व में संवर्त और मरुत्त का उपाख्यानविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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