महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 30 श्लोक 17-33

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त्रिंय (30) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: त्रिंय अध्याय: श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद


त्वचा की बात सुनकर अलर्क ने थोड़ी देर तक विचार किया, फिर (श्रोत को सुनाते हुए) कहा- अलर्क बोले- यह श्रोत्र बारंबार नाना प्रकार के शब्दों को सुनकर उन्हीं की अभिलाषा करता है, इसलिये मैं इन तीखे बाणों को श्रोत्र-इन्द्रिय के ऊपर चलाऊँगा। श्रोत्र ने कहा- अलर्क! ये बाण मुझे किसी प्रकार नहीं छेद सकते। ये तुम्हारे ही मर्म स्थानों को विदीर्ण करेंगे। तब तुम जीवन से हाथ धो बैठोगे। अत: तुम अन्य प्रकार के बाणों की खोज करो, जिनसे मुझे मार सकोगे। यहसुनकर अलर्क ने कुछ सोच विचार कर (नेत्र को सुनाते हुए) कहा। अलर्क बोल- यह आँख भी अनेकों बार विभिन्न रूपों का दर्शन करके पुन: उन्हीं को देखना चाहती है। अत: मैं इसे अपने तीखे तीरों से मार डालूँगा। आँख ने कहा- अलर्क! ये बाण मुझे किसी प्रकार नहीं छेद सकते। ये तुम्हारे ही मर्मस्थानों को बींध डालेंगे और मर्म विदीर्ण हो जाने पर तुम्हें ही तीवन से हाथ धोना पड़ेगा। अत: दूसरे प्रकार के सायकों का प्रबन्ध सोचो, जिनकी सहायता से तुम मुझे मार सकोगे। यह सुनकर अलर्क ने कुछ देर विचार करने के बाद (बुद्धि को लक्ष्य करके) यह बात कही। अलर्क ने कहा- यह बुद्धि अपनी ज्ञानशक्ति से अनेक प्रकार का निश्चय करती है, अत: इस बुद्धि पर ही अपने तीक्ष्ण सायकों का प्रहार करूँगा। बुद्धि बोली- अलर्क! ये बाण मेरा किसी प्रकार भी स्पर्श नहीं कर सकते। इनसे तुम्हारा ही मर्म विदीर्ण होगा और मर्म विदीर्ण होने पर तुम्हीं मरोगे। जिनकी सहायता से मुझे मार सकोगे, वे बाण तो कोई और ही हैं। उनके विषय में विचार करो। ब्राह्मण ने कहा- देवि! तदनन्तर अलर्क ने उसी पेड़ के नीचे बैठकर घोर तपस्या की, किंतु उसे मन बुद्धि सहित पाँचों इन्द्रियों को मारने योग्य किसी उत्तम बाण का पता न चला। तब वे सामर्थ्यशाली राज एकाग्रचित होकर विचार करने लगे। विप्रवर! बहुत दिनों तक निरन्तर सोचने विचारन के बाद बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा अलर्क को योग से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी साधन नहीं प्रतीत हुआ। वे मन को एकाग्र करके स्थिर आसन से बैठ गये और ध्यानयोग का साधन करने लगे। इस ध्यान योग रूप एक ही बाण से मारकर उन बलशाली नरेश ने समस्त इन्द्रियों को सहसा परास्त कर दिया। वे ध्यान योग के द्वारा आत्मा में प्रवेश करके परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हो गये। इस सफलता से राजर्षि अलर्क को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इस गाथा का गान किया- ‘अहो! बड़े कष्ट की बात है कि अब तक मैं बाहरी कामों में ही लगा रहा और भोगों की तृष्णा से आबद्ध होकर राज्य की ही उपासना करता रहा। ध्यान योग से बढ़कर दूसरा कोई उत्तम सुख का साधन नहीं है, यह बात तो मुझे बहुत पीछे मालूम हुई है’। (पितामहों ने कहा-) बेटा परशुराम! इन सब बातों को अच्छी तरह समझ कर तुम क्षत्रियों का नाश न करो। घोर तपस्या में लग जाओं, उसी से तुम्हें कल्याण प्राप्त होगा। अपने पितामहों के इस प्रकार कहने पर महान् सौभाग्यशाली जमदग्नि नन्दन परशुरामजी ने कठोर तपस्या की और इससे उन्हें परम दुर्लभ सिद्धि प्राप्त हुई।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मणगीता विषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।










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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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