महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 58 श्लोक 35-54

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 12:47, 30 August 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (1 अवतरण)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

अष्टपञ्चाशत्तम (58) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: अष्टपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 35-54 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! वज्रधारी इन्द्र जब किसी तरह उत्तंक को अपने निश्चय से नहटा सके, तब उन्होंने उन के डंडे के अग्रभाग में अपने वज्रास्त्र का संयोग कर दिया। जनमेजय! उस वज्र के प्रहार से विदीर्ण होकर पृथ्वी ने नागलोक का रास्ता प्रकट कर दिया। उसी मार्ग से उन्होंने नागलोक में प्रवेश किया और देखा कि नागों का लोक सहस्त्रों योजन विस्तृत है। महाभाग! उसके चारों ओर दिव्य परकोटे बने हुए हैं, जो सोने की ईंटों से बने हुए हैं और मणि-मुक्ताओं से अलंकृत हैं। वहाँ स्फटिक मणिकी बनी हुई सीढ़ियों से सुशोभित बहुत सी बावड़ियों, निर्मल जल वाली अनेकानेक नदियों बौर विहगवृन्द से विभूषित बहुत से मनोहर वृक्षों को भी उन्होंने देखा। भृगुकुलतिलक उत्तंक ने नागलोक का बाहरी दरवाजा देखा, जो सौ योजन लंबा और पाँच योजन चौड़ा था। नागलोक की वह विशालता देखकर उत्तंक मुनि उस समय दीन-हतोत्साह हो गये। अब उन्हें फिर कुण्डल पाने की आशा नहीं रही। इसी समय उनके पास एक घोड़ा आया, जिसकी पूँछ के बाल काले और सफेद थे। उसके नेत्र और मुँह लाल रंग के थे। अब कुरुनन्दन! वह अपने तेज से प्रज्वलित सा हो रहा था। उसने उत्तंक से कहा- विप्रवर! तुम मेरे इस अपान मार्ग में फूँक मारो। ऐसा करने से ऐरावत के पुत्र ने जो तुम्हारे दोनों कुण्डल लाये हैं, वे तुम्हें मिल जायँगे। ‘बेटा! इस कार्य में तुम किसी तरह घृणा न करो; क्योंकि गौतम के आश्रम में रहते समय तुमने अनेक बार ऐसा किया है। उत्तंक ने कहा- गुरुदेव के आश्रम पर मैंने कभी आपका दर्शन किया है, इसका ज्ञान मुझे कैसे हो?और आपके कथनानुसार वहाँ रहते समय पहले जो कार्य मैं अनेक बार कर चुका हूँ, वह क्या है? यह मैं सुनना चाहता हूँ। घोड़े ने कहा- ब्रह्मन्! मैं तुम्हारे गुरु का गुरु जातवेदा अग्नि हूँ, यह तुम अच्छी तरह जान लो। भृगुनन्दन! तुमने अपने गुरु के लिये सदा पवित्र रहकर विधिपूर्वक मेरी पूजा की है। इसलिये मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा। अब तुम मेरे बताये अनुसार कार्य करो, विलम्बन करो। अग्निदेव के ऐसा कहने पर उत्तंक ने उनकी आज्ञा का पालन किया। तब घृतमयी अर्चिवाले अग्निदेव प्रसन्न होकर नागलोक को जला डालने की इच्छा से प्रज्वलित हो उठे। भारत! जिस समय उत्तंक ने फूँक मारना आरम्भ किया, उसी समय उस अश्वरूपधारी अग्नि के रोम-रोम से घनी भूत धूम उठने लगा; जो नागलोक को भय भीत करने वाला था। महाराज भरतनन्दन! बढ़ते हुए उस महान् धूम से आच्छन्न हुए नागलोक में कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। जनमेजय! ऐरावत के सारे घर में हाहाकार मच गया। भारत! वासुकि आदि नागों के घर धूम से आच्छादित हो गये। उनमें अँधेरा छा गया। वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो कुहासा से ढके हुए वन और पर्वत हों। धुआँ लगने से नागों की आँखें लाल हो गयी। वे आग की आँच से तप से रहे थे। महात्मा भार्गव (उत्तंक)- का क्या निश्चय है, यह जानने के लिये सभी एकत्र होकर उनके पास आये। उस समय उन अत्यंत तेजस्वी महर्षि का निश्चय सुनकर सबकी आँखें भय से कातर हो गयी तथा सबने उनका विधिवत् पूजन किया।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः