महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-17

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द्वितीय (2) अध्याय: सौप्तिक पर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व :द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

कृपाचार्य का अश्वत्थामा को दैव की प्रबलता बताते हुए कर्तव्य के विषय में सत्पुरूषों से सलाह लेने की प्रेरणा देना तब कृपाचार्य ने कहा- शक्तिशाली महाबाहो ! तुमने जो-जो बात कही है वह सब मैंने सुन ली । अब कुछ मेरी भी बात सुनो । सभी मनुष्य प्रारब्धक और पुरूषार्थ दो प्रकार के कर्मों से अथवा अकेले पुरूषार्थ से भी कार्यों की सिद्धि नहीं होती है। दोनों के संयोग से ही सिद्धि प्राप्त होती है । उन दोनों से ही उत्तम-अधम सभी कार्य बँधे हुए हैं। उन्हीं से प्रवृति और निवृति-संबंधी कार्य होते देखे जाते हैं । बादल पर्वत पर वर्षा करके किस फल की सिद्धि करता है वही यदि जोते हुए खेत में वर्षा करे तो वह कौन-साफ नहीं उत्पन्न कर सकता । दैवरहित पुरूषार्थ व्यर्थ है और पुरूषार्थशून्य दैव भी व्यर्थ हो जाता है। सर्वत्र ये दो ही पक्ष उठाये जाते हैं। इन दोनों में पहला पक्ष ही सिद्धान्त एवं श्रेष्ठ है; अर्थात दैव के सहयोग के बिना पुरूषार्थ नहीं काम देता है । जैसे मेघ ने अच्छी तरह वर्षा की हो और खेत को भी भली-भांति जोता गया हो तब उसमें बोया हुआ बीज अधिक लाभदायक हो सकता है। इसी प्रकार मनुष्यों की सारी सिद्धि दैव और पुरूषार्थ के सहयोग पर ही अवलम्बित है । इन दोनों में दैव बलवान है। वह स्वयं ही निश्‍चय करके पुरूषार्थ की अपेक्षा किये बिना ही फल-साधना में प्रवृत हो जाता है तथापि विद्वान पुरूष कुशलता का आश्रय ले पुरूषार्थ में ही प्रवृत होते हैं । नरश्रेष्ठ ! मनुष्यों के प्रवृति और निवृति- संबंधी सारे कार्य देव और पुरूषार्थ दोनों से ही सिद्धि होते देखे जाते हैं । किया हुआ पुरूषार्थ भी दैव के सहयोग से ही सफल होता है तथा दैव की अनुकूलता से ही कर्ता को उसके कर्म का फल प्राप्त होता है । चतुर मनुष्यों द्वारा अच्छी तरह सम्पादित किया हुआ पुरूषार्थ भी यदि दैव के सहयोग से वंचित है तो वह संसार में निष्फल दिखायी देता है । मनुष्यों में जो आलसी और मन पर काबू न रखने वाले होते है वे पुरूषार्थ की निन्दा करते हैं। परंतु विद्वानों को यह बात अच्छी नहीं लगती । प्राय: किया हुआ क्रम इस भूतल पर कभी होता नहीं देखा जाता है परंतु कर्म न करने से दुख की प्राप्ति ही देखने में आती है अत कर्म को महान फलदायक समझना चाहिए । यदि कोई पुरूषार्थ न करके दैवेच्छा से ही कुछ पा जाता है अथवा जो पुरूषार्थ करके भी कुछ नहीं पाता इन दोनों प्रकार के मनुष्यों का मिलना बहुत कठिन है । पुरूषार्थ में लगा हुआ दक्ष पुरूष सुख से जीवन-निर्वाह कर सकता है परंतु आलसी मनुष्य कभी सुखी नहीं होता है। इस जीव-जगत में प्रायरू तत्परतापूर्वक कर्म करने वाले ही अपना हित साधन करते देखे जाते हैं । यदि कार्य-दक्ष मनुष्य कर्म का आरम्भ करके भी उसका कोई फल नहीं पाता है तो उसके लिये उसकी कोई निन्दा नहीं की जाती अथवा वह अपने प्राप्ताव्यभ लक्ष्य को पा ही लेता है । परंतु जो इस जगत में कोई काम न करके बैठा-बैठा फल भोगता है वह प्राय निन्दित होता है और दूसरों के द्वेष का पात्र बन जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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