महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-12

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 15:25, 17 October 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - "विरूद्ध" to "विरुद्ध")
Jump to navigation Jump to search

पञ्चम (5) अध्‍याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: पञ्चम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

नारद जी का युधिष्ठिर की सभा में आगमन और प्रश्र के रूप में युधिष्ठिर को शिक्षा देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! एक दिन उस सभा में महात्मा पाण्डव अन्यान्य महापुरूषों तथा गन्धर्वों आदि के साथ बैठे हुए थे। उसी समय वेद और उपनिषदों के ज्ञाता, ऋषि, देवताओं द्वारा पूजित, इतिहास-पुराण के मर्मज्ञ, पूर्व कल्प की बातों के विशेषज्ञ, न्याय के विद्वान्, धर्म के तत्त्व को जानने वाले, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्यौतिष- इन छहों अंगों के पण्डितों में शिरोमणि, ऐक्य[1], संयोग[2] नानाज्व और समवाय[3] के ज्ञान में विशारद, प्रगल्भ वक्ता, मेधावी, स्मरण शक्ति सम्पन्न, नीतिज्ञ, त्रिकालदर्शी, अपर ब्रह्म और परब्रह्म को विभाग पूर्वक जानने वाले, प्रमाणों द्वारा एक निश्रित सिद्धान्त पर पहुँचे हुए, पञ्चावयवयुक्त[4] वाक्य के गुण-दोष को जानने वाले, बृहस्पति-जैसे वक्ता के साथ भी उत्तम-प्रत्युत्तर करने में समर्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरूषाथों के सम्बन्ध में यथार्थ निश्‍चय रखने वाले तथा इन सम्पूर्ण चौदहों भुवनों को ऊपर, नीचे, और तिरछे सब ओर से प्रत्यक्ष देखने वाले, महा बुद्धिमान्, सांख्य और योग के विभाग पूर्वक ज्ञाता, देवताओं और असुरों में भी निर्वेद (वैराग्य) उत्पन्न करने के इच्छुक, संधि और विग्रह के तत्त्व को समझने वाले, अपने और शत्रु पक्ष के बलाबल का अनुमान से निश्रय करके शत्रु पक्ष के मन्त्रियों आदि को फोड़ने के लिये धन आदि बाँट ने के उपयुक्त अवसरका ज्ञान रखने वाले, संधि (सुलह), विग्रह (कलह),यान (चढ़ाई करना), आसन (अपने स्थान ही चुप्पी मारकर बैठे रहना), द्वैधीभाव (शत्रुओं में फूट डालना) और समाश्रय (किसी बलवान् राजा का आश्रय ग्रहण करना)- राजनीति के इन छहों अंगों के उपयोग के जानकार, समस्त शास्त्रों के निपुण विद्वान्, युद्ध और संगीत की कला में कुशल, सर्वत्र क्रोध रहित,इन उपर्युक्त गुणों के सिवा और भी असंख्य सदुणों से सम्पन्न, मननशील, परम कान्ति मान् महातेजस्वी देवर्षि नारद लोक-लोकान्तरों में घूमते-फिरते पारिजात, बुद्धिमान् पर्वत तथा सौम्य, सुमुख आदि अन्य अनेक ऋषियों के साथ सभा में स्थित पाण्डवों से प्रेमपूर्वक मिलने के लिये मन के समान वेग से वहाँ आये और उन ब्रह्मर्षि ने जय-सूचक आशीर्वादों द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर का अत्यन्त सम्मान किया।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले वेद के वचनों की एकवाक्यता।
  2. एक में मिले हुए वचनों को प्रयोग के अनुसार अलग-अलग करना।
  3. यज्ञ के अनेक कर्मों के एक साथ उपस्थित होने पर अधिकार के अनुसार यजमान के साथ कम्र का जो सम्बन्ध होता है, उसका नाम समवाय है।
  4. दूसरे को किसी वस्तु का बोध कराने के लिये प्रवृत्त हुआ पुरूष जिस अनुमान वाक्य का प्रयोग करता है, उस में पाँच अवयव होते हैं - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । जैसे किसी ने कहा-‘इस पर्वत पर आग है, यह वाक्य प्रतिज्ञा है । ‘क्योंकि वहाँ धूम है’ यह हेतु है । जैसे रसोई घर में धूआँ दीखने पर वहाँ आग देखी जाती है’ दृष्टान्‍त ही उदाहरण है । ‘चूँकि इस पर्वत पर धूआँ दिखायी देता है’ हेतु की इस उपलब्धि का नाम उपनय है । ‘इसलिये वहाँ आग है’ यह निश्‍चय ही निगमन है । इस वाक्य में अनुकूल तर्क का होना गुण है और प्रतिकूल तर्क का होना दोष है, जैसे ‘यदि वहाँ आग न होती, तो धूआँ भी नहीं उठता’ यह अनुकूल तर्क है । जैसे कोई तालाब से भाप उठती देखकर यह कहे कि इस तालाब में आग है, तो उस का वह अनुमान आश्रया सिद्ध रूप हेत्वाभास से युक्त होगा।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः