महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-14

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विंश (20) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: विंश अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! युधिष्ठिरकी यह बात समाप्त होने पर प्रवचन कुशल महातपस्वी देवस्थान ने युक्तियुक्त वाणी में राजा युधिष्ठिरसे कहा।

देवस्थान बोले- राजन्!अर्जुन ने जो यह बात कही है कि ’धन से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है।’ इसके विषय में मैं भी तुम से कुछ कहूगा! तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। नरेश्वर! अजातशत्रो! तुमने धर्म के अनुसार यह सारी पृथ्वी जीती है। इसे जीतकर व्यर्थ ही त्याग देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। महाबाहु भूपाल! ब्रहमचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास- ये चारों आश्रम ब्रहम को प्राप्त कराने की चार सीढ़ियां हैं, जो वेद में ही प्रतिष्ठित हैं। इन्हें क्रमशः यथोचितरूप से पार करो। कुन्तीनन्दन! अतः तुम बहुत-सी दक्षिण वाले बड़े-बड़े यज्ञों का अुनष्ठान करो। स्वाध्याय यज्ञ और ज्ञान यज्ञ तो ऋषिलोग किया करते हैं। राजन्! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि ऋषियों मे कुछ लोग कर्मनिष्ठ और तपोनिष्ठ भी होते हैं। कुन्तीनन्दन! वैरवानस महात्माओं का वचन इस प्रकार सुनने में आता है-। ’जो धन के लिये विशेष चेष्टा करता है, वह वैसी चेष्टा न करे- यही सबसे अच्छा है; क्यों कि जो उस धन की उपासना करने लगता है, उसके महान् दोष की वृद्धि होती है। ’ लोग धन के लिये बड़े कष्ट से नाना प्रकार के द्रव्यों का संग्रह करते हैं। परंतु धन के लिये प्यासा हुआ मनुष्य अज्ञान वश भू्रणहत्या- जैसे पाप का भागी हो जाता है, इस बात को वह नहीं समझता। ’बहुधा मनुष्य अनधिकारी को धन दे देता है और योग्य अधिकारी को नहीं देता। योग्य-अयोग्य पात्र की पहचान न होने से(भू्रणहत्या के समान दोष लगता है, अतः) दान धर्म भी दुष्कर ही है। ’ब्राह्म ने यज्ञ के लिये ही धनकी सृष्टि की है तथा यज्ञ के उद्देश्य से ही उसकी रक्षा करने वाले पुरुष को उत्पन्न किया है, इसलिये यज्ञ में ही सम्पूर्ण धन का उपयोग कर देना चाहिये। फिर शीघ्र ही (उस यज्ञ से ही) यजमान के सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि हो जाती है। ’ महातेजस्वी इन्द्र धनरत्नों से सम्पन्न नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा यज्ञ पुरुष का यजन करके सम्पूर्ण देवताओं से अधिक उत्कर्षशाली हो गये; इसलिये इन्द्र का पद पाकर वे स्वर्गलोक में प्रकाशित हो रहे हैं, अतः यज्ञ में ही सम्पूर्ण धन का उपयोग करना चाहिये। ’ गजासुर के चर्म को वस्त्र की भाति धारण करने वाले महात्मा महादेव जी सर्वस्व समर्पणरूप यज्ञ में अपने आप को होमकर देवताओं के भी देवता हो गये। वे अपने उत्तम कीर्ति से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके तेजस्वी रूप से प्रकाशित हो रहे हैं। ’अविक्षित् के पुत्र सुप्रद्धि महाराज मरूत्त ने अपनी समृद्धि के द्वारा देवराज इन्द्र को भी पराजित कर दिया था, उनके यज्ञ में लक्ष्मी देवी स्वयं ही पधारी थी। उस यज्ञ के उपयोग में आये हुए सारे पात्र सोने के बने हुए थे। ’राजाधिराज हरिश्चन्द्र का नाम तुमने सुना होगा, जिन्होंने मनुष्य होकर भी अपनी धन-सम्पत्ति के द्वारा इन्द्र को भी परास्त कर दिया था, वे भी अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करके पुण्य के भागी एवं शोकशून्य हो गये थे; अतः यज्ञ में ही सारा धन लगा देना चाहिये’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में देवशस्थान वाक्य विषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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