महाभारत मौसल पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-16

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 07:36, 3 January 2016 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - "पुरूष" to "पुरुष")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

तृतीय (3) अध्याय: मौसल पर्व

महाभारत: मौसल पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
कृतवर्मा आदि समस्त यादवों का परस्पर संहार

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! द्वारका के लोग रात को स्वप्नों में देखते थे कि एक काले रंग की स्‍त्री अपने सफेद दाँतों को दिखा-दिखाकर हँसती हुई आयी है और घरों में प्रवेश करके स्त्रियों का सौभाग्य-चिह्न लूटती हुई सारी द्वारका में दौड़ लगा रही है। अग्निहोत्र गृहों में जिनके मध्य भाग में वास्तु की पूजा-प्रतिष्ठा हुई है, ऐसे घरों में भयंकर गृध्र आकर वृष्णि और अन्धक वंश के मनुष्यों को पकड़-पकड़कर खा रहे हैं। यह भी स्वप्न में दिखायी देता था। अत्यन्त भयानक राक्षस उनके आभूषण, छत्र, ध्वजा और कवच चुराकर भागते देखे जाते थे। जिसकी नाभि में वज्र लगा हुआ था जो सब-का-सब लोहे का ही बना था, वह अग्नि देव का दिया हुआ श्री विष्णु का चक्र वृष्णि वंशियों के देखते-देखते दिव्य लोक में चला गया।

भगवान का जो सूर्य के समान तेजस्वी और जुता हुआ दिव्य रथ था, उसे दारूक के देखते-देखते घोड़े उड़ा ले गये। वे मन के समान वेगशाली चारों श्रेष्ठ घोड़े समुद्र के जल के ऊपर-ऊपर से चले गये। बलराम और श्रीकृष्ण जिनकी सदा पूजा करते थे, उन ताल और गरूड़ के चिह्न से युक्त दोनों विशाल ध्वजों को अप्‍सराएँ ऊँचे उठा ले गयीं और दिन-रात लोगों से यह बात कहने लगीं कि ‘अब तुम लोग तीर्थ-यात्रा के लिये निकलो।' तदनन्तर पुरुष श्रेष्ठ वृष्णि और अन्धक महारथियों ने अपनी स्त्रियों के साथ उस समय तीर्थ यात्रा करने का विचार किया। अब उन में द्वारका छोड़ कर अन्यत्र जाने की इच्छा हो गयी थी।

तब अन्धकों और वृष्णियों ने नाना प्रकार के भक्ष्य, भोजन, पेय, मद्य और भाँति-भाँति के मांस तैयार कराये। इसके बाद सैनिकों के समुदाय, जो शोभासम्पन्न और प्रचण्ड तेजस्वी थे, रथ, घोड़े और हाथियों पर सवार होकर नगर के बाहर निकले। उस समय स्त्रियों सहित समस्त यदुवंशी प्रभास क्षेत्र में पहुँचकर अपने-अपने अनुकूल घरों में ठहर गये। उन के साथ खाने-पीने की बहुत-सी सामग्री थी। परमार्थ ज्ञान में कुशल और योगवेत्ता उद्धव जी ने देखा कि समस्त वीर यदुवंशी समुद्र तट पर डेरा डाले बैठे हैं। तब वे उन सबसे पूछकर विदा लेकर वहाँ से चल दिये। महात्मा उद्धव भगवान श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर प्रणाम करके जब वहाँ से प्रस्थित हुए तब श्रीकृष्ण ने उन्हें वहाँ रोकने की इच्छा नहीं की; क्योंकि वे जानते थे कि यहाँ ठहरे हुए वृष्णि वंशियों का विनाश होने वाला है।

काल से घिरे हुए वृष्णि और अन्धक महारथियों ने देखा कि उद्धव अपने तेज से पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करके यहाँ से चले जा रहे हैं। उन महामनस्वी यादवों के यहाँ ब्राह्मणों को जिमाने के लिये जो अन्न तैयार किया गया था उस में मदिरा मिलाकर उस की गन्ध से युक्त हुए उस भोजन को उन्होंने वानरों को बाँट दिया। तदनन्तर वहाँ सैकड़ों प्रकार के बाजे बजने लगे। सब ओर नटों और नर्तकों का नृत्य होने लगा। इस प्रकार प्रभास क्षेत्र में प्रचण्ड तेजस्वी यादवों का वह महापान आरम्भ हुआ। श्रीकृष्ण के पास ही कृतवर्मा सहित बलराम, सात्यकि, गद और बभ्रु पीने लगे।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः