महाभारत सभा पर्व अध्याय 13 श्लोक 33-47

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त्रयोदश (13) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: त्रयोदश अध्याय: श्लोक 33-47 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्तर मन को वश में रखने वाले महाबुद्धिमान् राजा युधिष्ठिर ने सम्पूर्ण लोकों के हित की इच्छा से पुनः इस विषय पर मन-ही-मन विचार किया- ‘जो बुद्धिमान् अपनी शक्ति और साधनों को देखकर तथा देश, काल, आय और व्यय को बुद्धि के द्वारा भलीभाँति समझ करके कार्य आरम्भ करता है, वह कष्ट में नहीं पड़ता । केवल अपने ही निश्चय से यज्ञ का आरम्भ नहीं किया जाता ।’ ऐसा समझ कर यत्नपूर्वक कार्यभार वहन करने वाले युधिष्ठिर ने उस कार्य के विषय में पूर्ण निश्चय करने के लिये जनार्दन भगवान् श्रीकृष्ण को ही सब लोगों से उत्तम माना और वे मन-ही-मन उन अप्रमेय महाबाहु श्रीहरि की शरण में गये, जो अजन्मा होते हुए भी धर्म एवं साधु पुरुषों की रक्षा आदि की इच्छा से मनुष्य लोक में अवतीर्ण हुए थे। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के देवपूजित अलौकिक कर्मों द्वारा यह अनुमान किया कि श्रीकृष्ण के लिये कुछ भी अज्ञात नहीं है तथा कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जिसे वे कर न सकें। उन के लिये कुछ भी असह्य नहीं है ।
इस तरह उन्होंने उन्हें सर्वशक्तिमान् एवं सर्वज्ञ माना । ऐसी निश्चयात्मक बुद्धि करके कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने गुरूजनों के शीघ्र ही एक दूत भेजा । वह दूत शीघ्रगामी रथ के द्वारा तुरंत यादवों के यहाँ पहुँचकर द्वारकावासी श्रीकृष्ण से द्वारका में मिला। उसने विनयपूर्वक हाथ जोड़ भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार निवेदन किया। दूत ने कहा- महाबाहु हृषीकेश ! धर्मराज युधिष्ठिर धौम्य एवं व्यास आदि महर्षियों, द्रुपद और विराट आदि नरेशों तथा अपने समस्त भाइयों के साथ आप का दर्शन करना चाहते हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- दूत इन्द्र सेन की यह बात सुनकर यदुवंश शिरोमणि महाबली भगवान् श्रीकृष्ण दर्शनाभिलाषी युधिष्ठिर के पास स्वयं भी उनके दर्शन की अभिलाषा से दूत इन्द्र सेन के साथ इन्द्रप्रस्थ नगर में आये। मार्ग में अनेक देशों को लाँघते हुए वे बड़ी उतावली के साथ आगे बढ़ रहे थे । उनके रथ के घोड़े बहुत तेज चलने वाले थे । भगवान् जनार्दन इन्द्रप्रस्थ में आकर राजा युधिष्ठिर से मिले । फुफेरे भाई धर्मराज युधिष्ठिर तथा भीमसेन ने अपने घर में श्रीकृष्ण का पिता की भाँति पूजन किया ।
तत्पश्चात् श्रीकृष्ण अपनी बुआ कुन्ती से प्रसन्नता पूर्वक मिले। तदनन्तर प्रेमी सुहृद् अर्जुन से मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए । फिर नकुल-सहदेव गुरू की भाँति उनकी सेवा पूजा की। इस के बाद उन्होंने एक उत्तम भवन में विश्राम किया । थोड़ी देर बाद जब वे मिलने के योग्य हुए और इस के लिये उन्होंने अवसर निकाल लिया, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने आकर उन से अपना सारा प्रयोजन बतलाया। युधिष्ठिर बोले- श्रीकृष्ण ! मैं राजसूय यज्ञ करना चाहता हूँ; परंतु वह केवल चाहने भर से ही पूरा नहीं हो सकता । जिस उपाय से उस यज्ञ की पूर्ति हो सकती है, वह सब आपको ही ज्ञात है। जिस में सब कुछ सम्भव है अर्थात् जो सब कुछ सम्भव है अर्थात् जो सब कुछ कर सकता है, जिस की सर्वत्र पूजा होती है तथा जो सर्वेश्वर होता है, वही राजा राजसूय यज्ञ सम्पन्न कर सकता है।
मेरे सब सुहृद् एकत्र होकर मुझ से वही राजसूय यज्ञ करने के लिये कहते हैं; परंतु इसके विषय में अन्तिम निश्चय तो आप के कहने से ही होगा। कुछ लोग प्रेम -सम्बन्ध के नाते ही मेरे दोषों या त्रुटियों को नहीं बताते हैं । दूसरे लोग स्वार्थवश वही बात कहते हैं, जो मुझे प्रिय लगे। कुछ लोग जो अपने लिये हितकर है, उसी को मेरे लिये भी प्रिय एवं हितकर समझ बैठते हैं । इस प्रकार अपने-अपने प्रयोजन को लेकर प्रायः लोगों की भिन्न-भिन्न बातें देखी जाती हैं। परंतु आप उपर्युक्त सभी हेतुओं से एवं काम-क्रोध से रहित होकर (अपने स्वरूप में स्थित हैं। अतः) इस लोक में मेरे लिये जो उत्तम एवं करने योग्य हो, उस को ठीक बताने की कृपा करें।

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयारम्भ पर्व में वासुदेवागमन विषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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