महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-22

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चतुश्चत्वारिंश (44) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: चतुश्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


सब पदार्थों के आदि अन्त का और ज्ञान की नित्यता का वर्णन

ब्रह्माजी ने कहा- महर्षिगण! अब मैं सम्पूर्ण पदार्थों के नाम लक्षणों सहित आदि, मध्य और अन्त का तथा उनके ग्रहण के उपाय का यथार्थ करता हूँ। पहल दिन है फिर रात्रि, (अत: दिन रात्रि का आदि है। इसी प्रकार) शुक्लपक्ष महीने का, श्रणव नक्षत्रों का और शिशिर ऋतुओं का आदि है। गन्धों का आदि कारण भूमि है। रसों का जल, रूपों का ज्योतिर्मय आदित्य, स्पर्शों का वायु और शब्द का आदिकारण आकाश है। ये गन्ध आदि पंचभूतों से उत्पन्न गुण हैं। अब मैं भूतों के उत्तम आदि का वर्णन करता हूँ। सूर्य समस्त ग्रहों का और जठरानल सम्पूर्ण प्राणियों का आदि बतलाया गया है। सावित्री सब विद्याओं की और प्रजापति देवताओं के आदि हैं। ॐकार सम्पूर्ण वेदों का और प्राण वाणी का आदि है। इस संसार में जो नियत उच्चारण है, वह सब गायत्री कहलाता है। छन्दों का आदि गायत्री और प्रजा का आदि सृष्टि का प्रारम्भ काल है। गौएँ चौपायों की और ब्राह्मण मनुष्यों के आदि हैं। द्विजवरो! पक्षियों में बाज, यज्ञों में उत्तम आहुति और सम्पूर्ण रेंगकर चलने वाले जीवों में साँप श्रेष्ठ हैं। सत्युग सम्पूर्ण युगों का आदि हैं, इसमें संशय नहीं है। समस्त रत्नों में सुवर्ण और अन्नों में जौ श्रेष्ठ है। सम्पूर्ण भक्ष्य- भोज्य पदार्थों में अन्न श्रेष्ठ कहा जाता है। बहने वाले और सभी पीने योग्य पदार्थों में जल उत्तम है। समस्त स्थावर भूतों में सामान्यत: ब्रह्मक्षेत्र पाकर नामवाला वृक्ष श्रेष्ठ एवं पवित्र माना गया है। सम्पूर्ण प्रजापतियों का आदि मैं हूँ, इसमें संशय नहीं है। मेरे आदि अचिन्त्यात्मा भगवान विष्णु हैं। उन्हीं को स्वयम्भू कहते हैं। समस्त पर्वतों में सबसे पहले महामेरूगिरिक की उत्पत्ति हुई है। दिशा और विदिशाओं में पूर्व दिशा उत्तम और आदि मानी गयी है। सब नदियों में त्रिपथगा गंगा ज्येष्ठ मानी गयी है। सरोवरों में सर्वप्रथम समुद्र का प्रादुर्भाव हुआ है। देव, दानव, भूत, पिशाच्र सर्प, राक्षस, मनुष्य, किन्नर और समस्त यक्षों के स्वामी भगवान शंकर हैं। सम्पूर्ण जगत् के आदि कारण ब्रह्मस्व रूप महाविष्णु हैं। तीनों लोकों में उनसे बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है। सब आश्रमों का आदि गृहस्थ आश्रम है, इसमें संदेह नहीं है। समस्त जगत् का आदि और अन्त अव्यकत प्रकृति ही है। दिन का अन्त है सूर्यास्त और रात्रि का अन्त है सूर्योदय। सुख का सदा दु:ख है और दु:ख का अन्त सदा सुख है। समस्त संग्रह का अन्त है विनाश, उत्थान का अन्त है पतन, संयोग का अन्त है वियोग और जीवन का अन्त मृत्यु। जिन-जिन वस्तुओं का निर्माण हुआ है, उनका नाश अवश्यम्भावी है। जो जन्म ले चुका है उसकी मृत्यु निश्चित है। इस जगत् में स्थावर या जंगम कोई भी सदा रहने वाला नहीं है। जितने भी यज्ञ, दान, तप, अध्ययन, व्रत और नियम है, उन सबका अन्त में विनाश होता हे, कवेल ज्ञान का अन्त नहीं होता। इसलिये विशुद्ध ज्ञान के द्वारा जिसका चित्त शान्त हो गया है, जिसकी इन्द्रियाँ वश में हो चुकी है तथा जो ममता और अहंकार से रहित हो गया है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में गुरु-शिष्य संवादविषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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