महाभारत वन पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-17

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षड्-विंश (26) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: षड्-विंश अध्याय: श्लोक 1- 17 का हिन्दी अनुवाद

दल्भपुत्र बक का युधिष्ठिर को ब्राह्मणों का महत्व बतलाना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! द्वैतवन में जब महात्मा पाण्डव निवास करने लगे, उस समय वह विशाल वन ब्राह्मणों से भर गया। सरोवर सहित द्वैतवन सदा और सब ओर उच्चारित होन-वाले वेदमन्त्रों के घोष से ब्रह्मलोक के समान जान पड़ता था। यजुर्वेद, ऋग्वेद और सामवेद तथा गद्य भाग के उच्चारण से जो ध्वनि होती थी, वह हृदय को प्रिय जान पड़ती थी। कुन्ती पुत्रों के धनुष की प्रत्यंचा का टंकार-शब्द और बुद्धिमान ब्राह्मणों के वेदमन्त्रों का घोष दोनों मिलकर ऐसे प्रतीत होते थे, मानो ब्राह्मणों और क्षत्रियत्व का सुन्दर संयोग हो रहा था। एक दिन कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिर ऋषियों से घिरे हुए संध्योपासना कर रहे थे। उस समय दल्म के पुत्र बक नामक महर्षि ने उनसे कहा-- ‘कुरुश्रेष्ठ कुन्तीकुमार ! देखो, द्वैतवन में तपस्वी ब्राह्मणों की होमवेला का कैसा सुन्दर दृश्य है। सब ओर वेदियों पर अग्नि प्रज्वलित हो रही है।' ‘आपके द्वारा सुरक्षित हो व्रत धारण करने वाले ब्राह्मण इस पुण्य वन में धर्म का अनुष्ठान कर रहे हैं।' भार्गव, आंगिरस, वासिष्ठ, कश्यप, महान् सौभाग्यशाली अगस्त्य वंशी तथा श्रेष्ठ व्रत का पालन करने वाले आत्रेय आदि से सम्पूर्ण जगत् के श्रेष्ठ ब्राह्मण यहाँ आकर तुमसे मिले हैं। ‘कुन्तीनन्दन ! कुरुश्रेष्ठ ! भाइयों सहित तुमसे मैं जो एक बात कह रहा हूँ, इसे ध्यान देकर सुनो। ‘अब ब्राह्मण, क्षत्रियों से और क्षत्रिय, ब्राह्मणों मिल जायें तो दोनों प्रचण्ड शक्तिशाली होकर उसी प्रकार अपने शत्रुओं को भस्म कर देते हैं, जैसे अग्नि और वायु मिलकर सारे वन को जला देते हैं।' ‘तात ! इहलोक और परलोक पर विजय पाने की इच्छा रखने वाला राजा किसी ब्राह्मण को साथ लिये बिना अधिक काल तक न रहे। जिसे धर्म और अर्थ की शिक्षा मिली हो तथा जिसका मोह दूर हो गया हो, ऐसे ब्राह्मण को पाकर राजा अपने शत्रुओं का नाश कर देता है। ‘राजा बलि को प्रजापालन जनित कल्याणकारी धर्म का आचरण करने के लिये ब्राह्मण का आश्रय लेने के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं जान पड़ता था। ब्राह्मणों के सहयोग से पृथ्वी का राज्य पाकर विरोचन-पुत्र बलि नामक असुर का जीवन सम्पूर्ण आवश्यक कामोपभोग की सामग्री से सम्पन्न हो गया और अक्षय राजालक्ष्मी भी प्राप्त हो गयी। परंतु वह उन ब्राह्मणों के साथ दुर्व्‍यवहार करने पर नष्ट हो गया[1]। ‘जिसे ब्राह्मण का सहयोग नहीं प्राप्त है, ऐसे क्षत्रिय के पास यह ऐश्वर्यपूर्ण भूमि दीर्घ काल तक नहीं रहती। जिस नीतिज्ञ राजा को श्रेष्ठ ब्राह्मण का उपदेश प्राप्त होता है, उसके सामने समुद्रपर्यन्त नमस्तक होती है। ‘जैसे संग्राम में हाथी से महावत को अलग कर देने पर उसकी सारी शक्ति व्यर्थ हो जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मण-रहित क्षत्रिय का सारा बल क्षीण हो जाता है।' ‘ब्राह्मणों के पास अनुपम दृष्टि ( विचारशक्ति ) होती है और क्षत्रिय के पास अनुपम बल होता है।' ये दोनों जब साथ-साथ कार्य करते हैं, तब सारा जगत् सुखी होता है। ‘जैसे प्रचण्ड अग्नि वायु का सहारा पाकर सूखे जंगल को जला डालती है, उसी प्रकार ब्राह्मण की सहायता से राजा अपने शत्रु को भस्म कर देता है।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बलि के द्वारा ब्राह्मणों के साथ दुर्व्‍यवहार करने पर उसका राजालक्ष्मी से वियोग होने का प्रसंग शान्तिपर्व के 225वें अध्याय में आता है।

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