महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 78-95

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अष्‍टम (8) अध्याय: सौप्तिक पर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व: अष्‍टम अध्याय: श्लोक 78-95 का हिन्दी अनुवाद

वे सब-के-सब बड़े भयानक रूप से कुचल दिये गये थे। अत: उन्‍मत्त-से होकर जोर-जोर से चीखते और चिल्‍लाते थे। इसी प्रकार छूटे हुए घोड़ों और हाथियों ने भी अन्‍य बहुत-से योद्धाओं को कुचल दिया था। प्रभो ! उन सबकी लाशों से धरती पट गयी थी । घायल वीर चिल्‍ला चिल्‍लाकर कहते थे कि यह क्‍या है ? यह कौन है? यह कैसा कोलाहल हो रहा है? यह क्‍या कर डाला ? इस प्रकार चीखते हुए उन सब योद्धाओं के लिये द्रोणकुमार अश्‍वत्‍थामा काल बन गया था । पाण्‍डवों और सृंजयों में से जिन्‍होंने अस्‍त्र-शस्‍त्र और कवच उतार दिये थे तथा जिन लोगों ने पुन: कवच बॉंध लिये थे, उन सबको प्रहार करने वाले योद्धाओं में श्रेष्‍ठ द्रोणपुत्र ने मृत्‍यु के लोक में भेज दिया ।जो लोग नींद के कारण अंधें और अचेत-से हो रहे थे, वे उसके शब्‍द से चौंककर उछल पड़े; किंतु पुन: भय से व्‍याकुल हो जहां-तहां छिप गये । उनकी जांघें अकड़ गयी थी। मोहवश उनका बल और उत्‍साह मारा गया था। वे भयभीत हो जोर-जोर से चीखते हुए एक दूसरे से लिपट जाते थे । इसके बाद द्रोणकुमार अश्‍वत्‍थामा पुन: भयानक शब्‍द करने वाले अपने रथ पर सवार हुआ और हाथ में धनुष ले बाणों द्वारा दूसरे योद्धाओं को यमलोक भेजने लगा । अश्‍वत्‍‍थामा पुन: उछलने और अपने ऊपर आक्रमण करने वाले दूसरे-दूसरे नरश्रेष्‍ठ शूरवीरों को दूर से भी मारकर कालरात्रि के हवाले कर देता था । वह अपने रथ के अग्रभाग से शत्रुओं को कुचलता हुआ सब ओर दौड़ लगाता और नाना प्रकार के बाणों की वर्षा से शत्रुसैनिकों को घायल करता था । वह सौ चन्‍द्राकार चिह्नों से युक्‍त विचित्र ढाल और आकाश के रंगवाली चमचमाती तलवार लेकर सब ओर विचरने लगा । राजेन्‍द्र ! रणदुर्मद द्रोणकुमार ने उन शत्रुओं के शिविर को उसी प्रकार मथ डाला, जैसे कोई गजराज किसी विशाल सरोवर को विक्षुब्‍ध कर डालता है । राजन ! उस मार-काट के कोलाहल से निद्रा में अचेत पड़े हुए योद्धा चौंककर उछल पड़ते और भय से व्‍याकुल हो इधर-उधर भागने लगते थे । कितने ही योद्धा गला फाड़- फाड़कर चिल्‍लाते और बहुत-सी उटपटांग बातें बकने लगते थे। वे अपने अस्‍त्र-शस्‍त्र तथा वस्‍त्रों को भी नहीं ढूँढ पाते थे । दूसरे बहुत-से योद्धा बाल बिखेरे हुए भागते थे। उस दशा में वे एक दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। कोई उछलते हुए भागते और थककर गिर जाते थे तथा कोई उसी स्‍थान पर चक्‍कर काटते रहते थे । कितने ही मलत्‍याग करने लगे। कितनों के पेशाब झड़़ने लगे। राजेन्‍द्र ! दूसरे बहुत से घोड़े और हाथी बन्‍धन तोड़कर एक साथ ही सब ओर दौड़ने और लोगों को अत्‍यन्‍त व्‍याकुल करने लगे । कितने ही योद्धा भयभीत हो पृथ्‍वी पर छिपे पड़े थे। उन्‍हें उसी अवस्‍था में भगते हुए घोड़ों और हाथियों ने अपने पैरों से कुचल दिया । पुरुषप्रवर ! भरतश्रेष्‍ठ ! इस प्रकार जब वह मारकाट मची हुई थी, उस समय हर्ष में भरे हुए राक्षस बड़े जोर-जोर से गर्जना करते थे । राजन ! आनन्‍दमग्‍न हुए भूतसमुदायों के द्वारा किया हुआ वह महान् कोलाहल सम्‍पूर्ण दिशाओं तथा आकाश में मूँज उठा । राजन ! मारे जाने वाले योद्धाओं का आर्तनाद सुनकर हाथी और घोड़े भय से थर्रा उठे और बन्‍धनमुक्‍त हो शिविर में रहने वाले लोगों को रौंदते हुए चारों ओर दौड़ लगाने लगे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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