महाभारत वन पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-16

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त्रयोविंश (23) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

पाण्डवों का द्वैतवन में जाने के लिये उद्यत होना और प्रजावर्ग की व्याकुलता

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! यादव कुल के अधिपति भगवान श्रीकृष्ण के चले जाने पर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन-नकुल, सहदेव, द्रौपदी और पुरोहित धौम्य उत्तम घोड़ों से जुते हुए बहुमूल्य रथों पर बैठे। फिर भूतनाथ भगवान शंकर के समान सुशोभित होने वाले वे सभी वीर एक - दूसरे वन में जाने के लिये उद्यत हुए। वेद-वेदांग और मंत्र के जानने वाले ब्राह्मणों को सोने की मुद्राएँ, वस्त्र तथा गौएँ प्रदान करके उन्होंने यात्रा प्रारम्भ की। भगवान श्रीकृष्ण के साथ बीस सेवक अस्त्र - शस्त्रों से सुसज्ज्ति हो धनुष, तेजस्वी बाण, शस्त्र, डोरी, यन्त्र और अनेक प्रकार के सहायक लेकर पहले ही पश्चिम दिशा में स्थित द्वारकापुरी की ओर चले गये थे। तदनन्तर सारथि इन्द्रसेन राजकुमारी सुभद्रा के वस्त्र, आभूषण, धायों तथा दासियों को लेकर तुरंत ही रथ के द्वारा द्वारकापुरी को चले दिया। इसके बाद उदार हृदय वाले पुरवासियों ने कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर के पास जा उनकी परिक्रमा की। कुरुजांगल देश के ब्राह्मण तथा सभी लोगों ने उनसे प्रसन्नतापूर्वक बातचीत की। अपने भाइयों सहित धर्मराज युधिष्ठिर ने भी प्रसन्न होकर उन सब से वार्तालाप किया। कुरुजांगलदेश के उस जनसमुदाय को देखकर महात्मा राजा युधिष्ठिर थोड़ी देर के लिये वहाँ ठहर गये। जैसे पिता का अपने पुत्रों पर वात्सल्यभाव होता है, उसी प्रकार कुरुश्रेष्ठ महात्मा युधिष्ठिर ने उन सबके प्रति अपने आन्तरिक स्नेह का परिचय दिया। वे भी उन भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर के प्रति वैसे ही अपुरक्त थे, जैसे पुत्र अपने पिता पर। उस महान् जनसमुदाय ( प्रजा ) के लोग कुरुकुल के प्रमुख वीर युधिष्ठिर के पास जा उन्हें चारों ओर से घेर कर खड़े हो गये। राजन ! उस समय उन सबके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी और वे वियोग के भय से भीत हो हा नाथ ! हा धर्म ! इस प्रकार पुकारते हुए कह रहे थे--‘कुरुवंश के श्रेष्ठ अधिपति, प्रजाजनों पर पिता का-सा स्नेह रखने वाले धर्मराज युधिष्ठिर हम सब पुत्रों, पुरवासियों तथा समस्त देशवासियों को छोड़कर अब कहाँ चले जा रहे हैं? क्रूरबुद्धि धृतराष्ट्र और दुर्योधन को धिक्कार है। सुबल पुत्र शकुनि तथा पापपूर्ण विचार रखने वाले कर्ण को भी धिक्कार है, जो पापी सदा धर्म में तत्पर रहने वाले आपका इस प्रकार अनर्थ करना चाहते हैं। ‘जिन महात्मा ने स्वयं ही पुरुषार्थ करके महादेवजी के नगर कैलास की-सी सुषमा वाले अनुपम इन्द्रप्रस्थ नामक नगर को बसाया था, वे अचिन्यकर्मा धर्मराज युधिष्ठिर अपनी पुरी को छोड़कर अब कहाँ जा रहे हैं?' ‘महामना महादानव ने देवताओं की सभा के समान सुशोभित होने वाली जिस अनुपम सभा का निर्माण किया था, देवताओं द्वारा रक्षित देवमाया के समान उस सभा का परित्याग करके धर्मराज युधिष्ठिर कहाँ ले जा रहे हैं?' धर्म, अर्थ और काम के ज्ञाता उत्तम पराक्रमी अर्जुन ने उन सब प्रजाजनों को सम्बोधित करके उच्च स्वर से कहा--‘राजा युधिष्ठिर इस वनवास की अवधि पूर्ण करके शत्रुओं का यश छीन लेंगे।' 'आप लोग एक साथ या अलग-अलग श्रेष्ठ ब्राह्मणों, तपस्वियों तथा धर्म-अर्थ के ज्ञाता महापुरुषों को प्रसन्न करके उन सबसे यह प्रार्थना करें, जिससे हम लोगों के अभीष्ट मनोरथ की उत्तम सिद्धि हो।' राजन ! अर्जुन के ऐसा कहने पर ब्राह्मणों तथा अन्य सब वर्ण के लोगों ने एक स्वर से प्रसन्नतापूर्वक उनकी बात का अभिनन्दन किया तथा धर्मात्माओं मे श्रेष्ठ युधिष्ठिर की परिक्रमा की। तदनन्तर सब लोग कुन्तीपुत्र युधिष्ठर, भीमसेन, अर्जुन, द्रौपदी तथा नकुल-सहदेव से विदा ले एवं युधिष्ठिर की अनुमति प्रदान करके उदास होकर अपने राष्ट्र को प्रस्थित हुए।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के वन पर्व के अर्जुनाभिगमनपर्व में द्वैतवनप्रवेशविषयक तेईसवाँ अध्ययाय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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