महाभारत वन पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-21

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 11:26, 1 August 2017 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - " महान " to " महान् ")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

एकविंश (21) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकविंश अध्याय: श्लोक 1- 21 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण शाल्व की माया से मोहित होकर पुनः सजग होना

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -- पुरुषसिंह ! इस प्रकार मेरे साथ युद्ध करने वाला महाशत्रु शाल्वराज पुनः आकाश में चला गया। महाराज ! वहाँ से विजय की इच्छा रखने वाले मन्दबुद्धि शाल्व ने क्रोध में भरकर मेरे ऊपर शतघ्नियाँ, बड़ी-बड़ी गदाएँ, प्रज्वलित शूल, मूसल और खड्ग फेंके। उनके आते ही मैंने तुरंत शीघ्रगामी बाणों द्वारा उन्हें रोककर उन गगनचारी शत्रुओं को आकाश में ही मार डालने का निश्चय किया और शीघ्र छोड़े हुए बाणों द्वारा उन सब के दो-दो तीन-तीन टुकड़े कर डाले। इससे अन्तरिक्ष में बड़ा भारी आत्र्तनाद हुआ। तदनन्तर शाल्व ने झुकी हुई गाँठों वाले लाखों बाणों का प्रहार करके दारुक, घोड़ों तथा रथ को आच्छादित कर दिया। वीरवर ! तब दारुक व्याकुल-सा होकर मुझसे बोला--‘प्रभो ! युद्ध में डटे रहना‘ इसे स्मरण करके ही मैं यहाँ ठहरा हुआ हूँ; किंतु शाल्व के बाणों से अत्यन्त पीडि़त होने के कारण मुझमें खडे़ रहने की भी शक्ति नहीं रह गयी है। 'मेरा अंग शिथिल होता जा रहा है।' सारथि का यह करुण वचन सुनकर मैंने उसकी ओर देखा। उसे बाणों द्वारा बड़ी पीड़ा हो रही थी। पाण्डव श्रेष्ठ ! उसकी छाती में, मस्तक पर, शरीर के अन्य अवयवों में तथा दोनों भुजाओं में, थोड़ा-सा भी ऐसा स्थान नहीं दिखायी देता था, जिसमें बाण न चुभे हुए हों। जैसे मेघ के वर्षा करने पर गेरू आदि धातुओं से युक्त पर्वत से लाल पानी की धारा बहाने लगती है, वैसे ही वह बाणों से छिदे हुए अपने अंगों से भयंकर रक्त की धारा बहा रहा था। महाबाहो ! उस युद्ध में हाथ में बागडोर लिये सारथि को शाल्व के बाणों से पीडि़त होकर कष्ट पाते देख, मैंने उसे ढांढ़स बँधाया। भरतवंशी वीरवर ! इतने में ही कोई द्वारकावासी पुरुष आकर तुरंत मेरे रथ पर चढ़ गया और सौहार्द दिखाता हुआ-सा बोला। वह राजा उग्रसेन का सेवक था और दुखी होकर उसने गद्गगद कण्ठ से उनका जो संदेश सुनाया, उसे बताता हूँ, सुनिये। ( दूत बोला-- ) ‘वीर ! द्वारका नरेश उग्रसेन ने आपको यह एक संदेश दिया है। केशव ! वे आपके पिता के सखा हैं; उन्होंने आपसे कहा है कि यहाँ आ जाओ और जान बचा लो।' ‘दुर्द्धर्ष वृष्णिनन्दन !' आपके युद्ध में आसक्त होने-पर शाल्व ने अभी द्वारकापुरी में शूरनन्दन वसुदेवजी को बलपूर्वक मार डाला है। ‘जनार्दन ! अब युद्ध करके क्या लेना है? लौट आओ। द्वारका की रक्षा करो। तुम्हारे लिये यही सबसे महान् कार्य है। दूत का यह वचन सुनकर मेरा मन उदास हो गया। मैं कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में कोई निश्चय नहीं कर पाता था। वीर युधिष्ठिर ! वह महान् अप्रिय वृत्तान्त सुनकर मैं मन-ही-मन सात्यकि, बलरामजी तथा महारथी प्रद्युम्न की निन्दा करने लगा। कुरुनन्दन ! मैं द्वारका तथा पिताजी की रक्षा का भार उन्हीं लोगों पर रखकर सौभविमान का नाश करने के लिये चला था। क्या शत्रुहन्ता महाबली बलरामजी जीवित हैं? क्या सात्यकि, रुक्मिणीनन्दन, प्रद्युम्न, महाबली चारुदेष्ण तथा साम्ब आदि जीवन धारण करते हैं? इन बातों का विचार करते-करते मेरा मन उदास हो गया। नरश्रेष्ठ ! इन वीरों के जीते-जी साक्षात इन्द्र भी मेरे पिता वसुदेवजी को किसी प्रकार मार नहीं सकते थे। अवश्य ही शूरनन्दन वसुदेवजी मारे गये और यह भी स्पष्ट है कि बलरामजी आदि सभी प्रमुख वीर प्राणत्याग कर चुके हैं--यह मेरा विचार निश्चित हो गया। महाराज ! इस प्रकार सब के विनाश का बारंबार चिन्तन करके भी मैं व्याकुल न होकर राजा शाल्व से पुनः युद्ध करने लगा।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः