महाभारत शल्य पर्व अध्याय 5 श्लोक 20-35

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पञ्चम (5) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: पञ्चम अध्याय: श्लोक 20-35 का हिन्दी अनुवाद

द्रौपदी अपने पतियों के अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि के लिये बड़ी कठोर तपस्या करती है और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की सगी बहन सुभद्रा मान और अभिमान को दूर फेंककर सदा दासी की भाँति द्रौपदी की सेवा करती है। इस प्रकार इन सारे कार्यो के रूप में वैर की आग प्रज्वलित हो उठी, जो किसी प्रकार बुझ नहीं सकती। अभिमन्यु के विनाश से जिसके हृदय में गहरी चोट पहुँची है, उस अर्जुन के साथ मेरी संधि कैसे हो सकती है ? जब मैं समुद्र से घिरी हुई सारी पृथ्वी का एकच्छत्र राजा की हैसियत से उपभोग कर चुका हूँ, तब इस समय पाण्डवों की कृपा का पात्र बनकर कैसे राज्य भोगूँगा। समस्त राजाओं के ऊपर सूर्य के समान प्रकाशित होकर अब दास की भाँति युधिष्ठिर के पीछे-पीछे कैसे चलूँगा। स्वयं बहुत-से भोग भोगकर और प्रचुर धनदान करके अब दीन पुरुषों के साथ दीनतापूर्ण जीविका का आश्रय ले किस प्रकार निर्वाह कर सकूँगा ? आपने स्नेहवश हित की ही बात कही है। आपकी इस बात में मैं दोष नहीं निकालता और न इसकी निंदा ही करता हूँ । मेरा कथन तो इतना ही है कि अब किसी प्रकार संधि का अवसर नहीं रह गया है। मेरी ऐसी ही मान्यता है। शत्रुओं को तापने वाले वीर ! अब मैं अच्छी तरह युद्ध करने में ही उत्तम नीति का पालन समझ रहा हूँ । हमारा यह समय कायरता दिखाने का नहीं, उत्साहपूर्वक युद्ध करने का ही है। तात ! मैंने बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया। ब्राह्माणों को पर्याप्त दक्षिणाएँ दे दीं। सारी कामनाएँ पूर्ण कर लीं। वेदों का श्रवण कर लिया।
शत्रुओं के माथे पर पैर रखा और भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियों के पालन-पोषण की अच्छी व्यवस्था कर दी। इतना ही नहीं, मैंने दिनों का उद्धार कार्य भी सम्पन्न कर दिया है। अतः द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं पाण्डवों से इस प्रकार संधि के लिये याचना नहीं कर सकता। मैंने दूसरों के राज्य जीते, अपने राष्ट्र का निरन्तर पालन किया, नाना प्रकार के भोग भोगे; धर्म, अर्थ और कामका सेवन किया और पितरों तथा क्षत्रिय धर्म दोनों के ऋण से उऋण हो गया। संसार में कोई भी सुख सदा रहने वाला नहीं है। फिर राष्ट्र और यश भी कैसे स्थिर रह सकते हैं ? यहाँ तो किर्ति का ही उपार्जन करना चाहिये और कीर्ति युद्ध के सिवा किसी दूसरे उपाय से नहीं मिल सकती। क्षत्रिय की भी यदि घर में मृत्यु हो जाय तो उसे निन्दित माना गया है। घर में खाटकर सोकर मरना यह क्षत्रिय के लिये महान् पाप है। जो बडे़-बडे़ यज्ञों का अनुष्ठान करके वन में या संग्राम में शरीर का त्याग करता है, वही क्षत्रिय महत्व को प्राप्त होता है।। जिसका शरीर बुढ़ापे से जर्जर हो गया हो, जो रोग से पीड़ित हो, परिवार के लोग जिसके आसपास बैठकर रो रहे हो और उन रोते हुए स्वजनों के बीच में जो करूण विलाप करते-करते अपने प्राणों का परित्याग करता है, वह पुरुष कहलाने योग्य नहीं है। अतः जिन्होंने नाना प्रकार के भोगों का परित्याग करके उत्तम गति प्राप्त कर ली है, इस समय युद्ध के द्वारा मैं उन्हीं के लोकों में जाऊँगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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