महाभारत शल्य पर्व अध्याय 11 श्लोक 45-63

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एकादश (11) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 45-63 का हिन्दी अनुवाद

(इसी बीच में भीमसेन दूसरे रथपर आरूढ़ हो गये थे) कृतवर्मा ने युद्धस्थल में पुनः भीमसेन के घोड़ों को मार डाला। तब घोड़ों के मारे जाने पर महाबली पाण्डुकुमार भीम सेन शीघ्र ही रथ से उतर पडे़ और कुपित होक दण्ड उठाये काल के समान गदा लेकर उन्होंने कृतवर्मा के घोड़ों तथा रथ को चूर-चूर कर दिया। कृतवर्मा उस रथ से कूदकर भाग गया । राजन् ! इधर शल्य भी अत्यन्त क्रोध में भरकर सोम कों और पाण्डव योद्धा का संहार करने लगे। उन्होंने पुनः पैने बाणोंद्वारा युधिष्ठिर को पीड़ा देना प्रारम्भ किया । यह देख पराक्रमी भीमसेन कुपित हो ओठ चबाते हुए रणभूमि में शल्य के विनाश का संकल्प लेकर यमदण्ड के समान भयंकर गदा लिये उन पर टूट पडे़। हाथी, घोडे़ और मनुष्यों के भी शरीरों का विनाश करने वाली वह गदा संहार के लिये उद्यत हुई काल रात्रि के समान जान पड़ती थी । उनके ऊपर सोने का पत्र जड़ा गया था। वह लोहे की बनी हुई वज्रतुल्य गदा प्रज्वलित उल्का तथा छींके पर बैठी हुई सर्पिणी के समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होती थी। अंगों में चन्दन और अगुरूका लेप लगाये हुए मनचाही प्रियतमा रमणी के समान उसके सर्वांगमें घसा और भेद लिपटे हुए थे। वह देखने में यमराज की जिहृा के समान भयंकर थी । उसमें सैकड़ों घंटिया लगी थीं। जिनका कलरव गूँजता रहा था वह इन्द्र के वज्र की भाँति भयानक जान पड़ती थी। केंचुल से छूटे हुए विषधर सर्प के समान वह सम्पूर्ण प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करती थी और अपनी सेना का हर्ष बढ़ाती रहती थी। उसमें हाथी के मद लिपटे हुए थे पर्वत शिखरों को विदीर्ण करने वाली वह गदा मनुष्यलोक में सर्वत्र विख्यात है । यह वही गदा है, जिसके द्वारा महाबली भीमसेन ने कैलास शिखर पर भगवान शंकर सखा कुबेर को युद्ध के लिये ललकारा था । तथा जिसके द्वारा क्रोध में भरे हुए महाबलवान् कुन्तीकुमार भीमने बहुतों के मना करनेपर भी द्रौपदी का प्रिय करने के लिये उद्यत हो गर्जना करते हुए कुबेरभवन में रहनेवाले बहुत-से मायामय अभिमानी गुह्यकों का वध किया था। जिसमें वज्र की गुरूता भरी है और जो हीरे, मणि तथा रत्न समूहों से जटित होने के कारण विचित्र शोभा धारण करती है, उसी को हाथ में उठाकर महाबाहु भीमसेन रणभूमि में शल्यपर टूट पडे़।। युद्धकुशल भीमसेन ने भयंकर शब्द करने वाली उस गदा के द्वारा शल्य के महान् वेगशाली चारों घोड़ों को मार गिराया । तब रणभूमि में कुपित हो गर्जना करते हुए वीर शल्य ने भीमसेन के विशाल वक्षःस्थल में एक तोमर घँसा दिया। वह उनके कवच को छेदकर छाती में गड़ गया । उसी तोमर को निकालकर उसके द्वारा मद्रराज शल्य सारथि की छाती छेद डाली। इससे सारथि का मर्मस्थल विदीर्ण हो गया और वह मुँह से रक्तवमन करता हुआ दीन एवं भयभीतचित्त होकर शल्य के सामने ही रथ से नीचे गिर पड़ा। फिर तो मद्रराज शल्य वहाँ से पीछे हट गये । अपने प्रहार का भरपूर उत्तर प्राप्त हुआ देख धर्मात्मा शल्य का चित्त आश्चर्य से चकित हो उठा। वे गदा हाथ में लेकर अपने शत्रु की ओर देखने लगे। संग्राम में अनायास ही महान् कर्म करने वाले भीमसेन का वह घोर पराक्रम देखकर कुन्ती के सभी पुत्र प्रसन्नचित्त हो उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में भीमसेन और शल्य का युद्धविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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