महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 31 श्लोक 55-73

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 07:28, 7 November 2017 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - "सृष्टा" to "स्रष्टा")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

एकत्रिंश (31) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 55-73 का हिन्दी अनुवाद

सर्वलोक वन्दित,दशार्हकुल नन्दन श्रीकृष्ण उनके घोड़ों की रास सँभालते हैं। वीर ! उनके पास अग्नि का दिया हुआ सुवर्ण भूषित दिव्य रथ है,जिसे किसी प्रकार नष्ट नहीं किया जा सकता। उनके घोड़े भी उनके समान वेगशाली हैं। उनका तेजस्वी ध्वज दिव्य है,जिसके ऊपर सबको आश्चर्य में डालने वाला वानर बैठा रहता है। श्रीकृष्ण जगत् के स्रष्टा हैं। वे अर्जुन के उस रथ की रक्षा करते हैं। इन्हीं वस्तुओं से हीन होकर मैं पाण्डु पुत्र अर्जुन से युद्ध की इच्छा रखता हूँ। अवश्य ही,ये युद्ध में शोभा पाने वाले राजा शल्य श्रीकृष के समान हैं,यदि ये मेरे सारथि का कार्य कर सकें तो तुम्हारी विजय निश्चित है। शत्रुओं से सुगमता पूर्वक जीते न जा सकने वाले राजा शल्य मेंरे सारथि हो जायँ और बहुत से छकड़े मेरे पास गीध की पाँखों से युक्त नाराच पहुँचाते रहैं। राजेन्द्र ! भरतश्रेष्ठ ! उत्तम घोड़ों से जुते हुए अच्छे-अच्छे रथ सदा मेरे पीछे चलते रहैं। ऐसी व्यवस्था होने पर मैं गुणों में पार्थ से बढ़ जाऊँगा। शल्य भी श्रीकृष्ण से बढ़े-चढ़े हैं और में भी अर्जुन से श्रेष्ठ हूँ। शत्रु वीरों का संहार करने वाले दशार्हवंशी श्रीकृष्ण अश्व विद्या के रहस्य को जिस प्रकार जानते हैं,उसी प्रकार महारथी शल्य भी अश्वविज्ञान के विशेषज्ञ हैं। बीहुबल में मद्रराज शल्य की समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं है। उसी प्रकार अस्त्र विद्या में मेरे समान कोई भी धनुर्धर नहीं है। अश्व विज्ञान में भी शल्य के समान कोई नहीं है। शल्य के सारथि होने पर रथ अर्जुन के रथ से बढ़ जायगा। ऐसी व्यवस्था कर लेने पर जब मैं रथ में बैठूँगा,उस समय सभी गुणों द्वारा अर्जुन से बढ़ जाऊँगा। कुरुश्रेष्ठ ! फिर तो मैं युद्ध में अर्जुन को अवश्य जीत लूँगा। इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी मरा सामना नहीं कर सकेंगे। शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! में चाहता हूँ कि आपके द्वारा यही व्यवस्था हो जाय। मेरा यह मनोरथ पूर्ण किया जाय। अब आप लोगों का यह समय व्यर्थ नहीं बीतना चाहिये। ऐसा करने पर मेरी सम्पूर्ण इच्छाओं के अनुसार सहायता सम्पन्न हो जायगी। भारत ! उस समय मैं संग्राम में जो कुछ करूँगा,उसे तुम स्वयं देख लोगो। युद्ध स्थल में आये हुए समस्त पाण्डवों को निश्चय ही मैं सब प्रकार से जीत लूँगा। राजन् समरांगण में देवता और असुर भी मेरा सामना नहीं कर सकते,फिर मनुष्य-योनि में उत्पन्न हुए पाण्डव तो कर ही कैसे सकते हैं।

संजय कहते हैं-राजन् ! युद्ध में शोभा पाने वाले कर्ण के ऐसा कहने पर आपके पुत्र दुर्योधन का मन प्रसन्न हो गया। फिर उसने राधा पुत्र कर्ण का पूर्णतः सम्मान करके उससे कहा।

दुर्योधन बोला-कर्ण ! जैसा तुम ठीक समझते हो उसी के अनुसार यह सारा कार्य मैं करूँगा। युद्ध स्थल में अनेक तरकसों से भरे हुए बहुत से अश्वयुक्त रथ तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे।

संजय कहते हैं-महाराज ! ऐसा कहकर आपके प्रतापी पुत्र राजा दुर्योधन ने महाराज शल्य के पास जाकर इस प्रकार कहा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और दुर्योधन का संवाद विषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः