महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 55 श्लोक 21-39

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पञ्चपञ्चाशत्तम (55) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: पञ्चपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद

राजन्। तब धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने दूसरा विशाल धनुष हाथ में लेकर अश्वात्थामा को बींध दिया एवं उसकी दोनों भुजाओं और छाती में सत्तर बाण मारे। इसके बाद कुपित हुए सात्याकि ने रणभूमि में प्रहार करने वाले अश्वतत्थमा के धनुष को तीखे अर्धचन्द्रक से काटकर बड़े जोर से गर्जना की । धनुष कट जाने पर शक्तिशालियों में श्रेष्ठ अश्व त्थाकमा ने शक्ति चलाकर शिनिपौत्र सात्य्कि के सारथि को शीघ्र ही रथ से नीचे गिरा दिया। भारत। तत्पीश्चात् प्रतापी द्रोणपुत्र ने दूसरा धनुष लेकर सात्य्कि को शरसमूहों की वर्षा द्वारा आच्छाीदित कर दिया। भरतनन्दुन। उनके रथ का सारथि धराशायी हो चुका था, इसलिये उनके घोड़े युद्धस्थदल में बेलगाम भागने लगे। वे विभिन्नस स्थाोनों में भागते हुए दिखायी दे रहे थे । युधिष्ठिर आदि पाण्डमव महारथी शस्त्र धारियों में श्रेष्ठो अश्वएत्था मा पर बड़े वेग से पैने बाणों की वर्षा करने लगे । शत्रुओं को संताप देनेवाले द्रोणपुत्र अश्वषत्था माने उस महासमर में उन पाण्डव महारथियों को क्रोधपूर्वक्‍ आक्रमण करते देख हंसते हुए उनका सामना किया । जैसे आग वन में सूखे काठ और घास-फूंस को जला देती है, उसी प्रकार महारथी अश्वमत्थासमाने समरागण में सैकड़ों बाणरूपी ज्वाोलाओं से प्रज्वलित हो पाण्ड वसेना रूपी सूखे काठ एवं घास-फूंस को जलाना आरम्भब किया। भरतश्रेष्ठ। जैसे तिमिनामक मत्य् नदी के प्रवाह को विक्षुब्धल कर देता है, उसी प्रकार द्रोणपुत्र के द्वारा संतप्तम की हुई पाण्डावसेना में हलचल मच गयी । महाराज। द्रोणपुत्र का पराक्रम देखकर सब लोगों ने यही समझा कि द्रोणकुमार अश्व।त्था मा के द्वारा सारे पाण्ड्व मार डाले जायंगे । तदनन्र रोष और अमर्ष में भरे हुए द्रोणशिष्या महारथी युधिष्ठिर ने द्रोणपुत्र अश्वदत्थालमा से कहा ।
(युधिष्ठिर उवाच) युधिष्ठिर बोले- द्रोणकुमार। मैं जानता हूं कि तुम युद्ध में पराक्रमी, महाबली, अस्त्रसवेत्ता, विद्वान् और शीघ्रता पूर्वक पुरुषार्थ प्रकट करने वाले श्रेष्ठ वीर हो । परंतु यदि तुम अपना यह सारा बल द्रुपदपुत्र पर दिखा सको तो हम समझेंगे कि तुम बलवान् तथा अस्त्रह-विद्या के विद्वान् हो।। शत्रुसूदन धृष्टद्युम्नो को समरभूमि में देखकर तुम्हारा बल कुछ भी काम न करेगा। (तुम्हा्रे कर्म को देखते हुए) मैं तुम्हेंर ब्राह्मण नहीं कहूंगा । पुरुषसिंह। तुम जो आज मुझे ही मार डालना चाहते हो, यह न तो तुम्हांरा प्रेम है और न कृतज्ञता । ब्राह्मण को तप, दान और वेदाध्योयन करना चाहिये। धनुष झुकाना तो क्षत्रिय का काम है; तुम नाम मात्र के ब्राह्मण हो । महाबाहो। आज मैं तुम्हाारे देखते-देखते युद्ध में कौरवों को जीतूंगा। तुम समर में पराक्रम प्रकट करो। निश्चय ही तुम एक स्वमधर्म भ्रष्ट ब्राह्मण हो। महाराज। उनके ऐसा कहने पर द्रोणपुत्र मुस्कयराने सा लगा। इनका कथन युक्तियुक्त तथा यथार्थ है, ऐसा सोचकर उसने कुछ उत्तर नहीं दिया । उसने कोई जवाब न देकर समरागड़ण में कुपित हो बाणों की वर्षा से पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे प्रलयकाल में क्रुद्ध यमराज सारी प्रजा को अदृश्यन कर देता है । आर्य द्रोणपुत्र के बाणों से आच्छा दित हो कुन्तीीकुमार युधिष्ठिर उस समय अपनी विशाल सेना को छोड़कर शीघ्र ही वहां से पलायन कर गये। राजन्। तत्पअश्चात् धर्मपुत्र युधिष्ठिर के हट जाने पर फिर महामना द्रोणपुत्र अश्वत्थाामा दूसरी ओर चला गया। नरेश्वर। फिर उस महायुद्ध में अश्वत्थाामा को छोड़कर युधिष्ठिर पुन: क्रूरतापूर्ण कर्म करने के लिये आपकी सेना की ओर बढ़े ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में युधिष्ठिर का लायनविषयक पचपनवां अध्याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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