महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 80 श्लोक 34-54

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 05:28, 4 February 2021 by आदित्य चौधरी (talk | contribs) (Text replacement - "आंखें" to "आँखें")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

अशीतितम (80) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 34-54 का हिन्दी अनुवाद

महाराज ! ऐसा कहकर दु:ख और शोक सक पीड़ित हुए राजा बभ्रुवाहन ने आचमन किया और बड़े दु:ख से इस प्रकार कहा-संसार के समस्‍त चराचर प्राणियो ! आप मेरी बात सुने । नागराज कुमारी माता उलूपी ! तुम भी सुन लो । मैं सच्‍ची बात बता रहा हूं। यदि मेरे पिता नरश्रेष्‍ठ अर्जुन आज जीवित हो पुन: उठ कर खड़े नहीं हो जाते तो मैं इस रणभूमि में ही उपवास करके अपने शरीर को सुखा डालूंगा। पिता की हत्‍या करके मेरे लिये कहीं कोई उद्धार का उपाय नहीं है । गुरुजन (पिता)– के वधरूपी पाप से पीढ़ित हो मैं निश्‍चय ही नरक में पडूंगा। किसी एक वीर क्षत्रिय का वध करके विजेता वीर सौ गोदान करने से उस पाप से छुटकारा पाता है; परंतु पिता की हत्‍या करके इस प्रकार उस पाप से छुटकारा मिल जाय, यह मेरे लिये सर्वथा दुर्लभ है। ये पाण्‍डुपुत्र धनंजय अद्वितीय वीर,महान, तेजस्‍वी, धर्मात्‍मा तथा मेरे पिता थे । इनका वध करके मैंने महान् पाप किया है । अब मेरा उद्धार कैसे हो सकता है ? नरेश्‍वर ! ऐसा कहकर धनंजय कुमार परम बुद्धिमान राजा बभ्रुवाहन पुन: आचमन करके आमरण उपवास का व्रत लेकर चुपचाप बैठ गया। वैशम्‍पायनजी कहते हैं– शत्रुओं को संताप देने वाले जनमेजय ! पिता के शोक से संतप्‍त हुआ मणिपुर नरेश बभ्रुवाहन जब माता के साथ आमरण उपवास का व्रत लेकर बैठ गया, तब उलूपी ने संजीवन मणिका स्‍मरण किया । नागों के जीवन की आधारभूत वह मणि उसके स्‍मरण करते ही वहां आ गयी। कुरुनन्‍दन ! उस मणि को लेकर नागराजकुमारी उलूपी सैनिकों के मन को आल्‍हाद प्रदान करने वाली बात बोली-बेटा बभ्रुवाहन ! उठो, शोक मत करो ! ये अर्जुन तुम्‍हारे द्वारा परास्‍त नहीं हुए हैं । ये तो सभी मनुष्‍यों और इन्‍द्रसहित सम्‍पूर्ण देवताओं के लिये भी अजेय हैं। यह तो मैंने आज तुम्‍हारे यशस्‍वी पिता पुरुष प्रवर धनंजय का प्रिय करने के लिये मोहनी माया दिखलायी है। राजन ! तुम इनके पुत्र हो । ये शत्रुवीरों का संहार करने वाले करुकुल तिलक अर्जुन संग्राम में जूझते हुए तुम– जैसे बेटे का बल–पराक्रम जानना चाहते थे।वत्‍स ! इसीलिये मैंने तुम्‍हें युद्ध के लिये प्रेरित किया है । सामर्थ्‍यशाली पुत्र ! तुम अपने में अणुमात्र पाप की भी आशंका न करो। ये महात्‍मा नर पुरातन ऋषि, सनातन एवं अविनाशी हैं । बेटा ! युद्ध में इन्‍हें भी नहीं जीत सकते। प्रजानाथ ! मैं यह दिव्‍यमणि ले आयी हूं । यह सदा युद्ध में मरे हुए नागराजों को जीवित किया करती है । प्रभो ! तुम इसे लेकर अपने पिता की छाती पर रख दो । फिर तुम पाण्‍डुपुत्र कुन्‍तीकुमार अर्जुन को जीवित हुआ देखोगे। उलूपी के ऐसा कहने पर निष्‍पाप कर्म करने वाले अमित तेजस्‍वी बभ्रुवाहन ने अपने पिता पार्थ की छाती पर स्‍नेह पूर्वक वह मणि रख दी। उस मणि के रखते ही शक्‍तिशाली वीर अर्जुन देर तक सोकर जगे हुए मनुष्‍य की भांति अपनी लाल आँखें मलते हुए पुन: जीवित हो उठे। अपने मनस्‍वी पिता महात्‍मा अर्जुन को सचेत एवं स्‍वस्‍थ होकर उठा हुआ देख बभ्रुवाहन ने उनके चरणों में प्रणाम किया। प्रभो ! पुरुषसिंह श्रीमान् अर्जुन के पुन: उठ जाने पर पाक शासन इन्‍द्र ने उनके ऊपर दिव्‍य एवं पवित्र फूलों की वर्षा की।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः