रासलीला

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 03:34, 5 March 2010 by आदित्य चौधरी (talk | contribs) (Text replace - '[[category' to '[[Category')
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

रासलीला / Raas Leela

  • उत्तर प्रदेश में प्रचलित लोकनाट्य का एक प्रमुख अंग है। इसका आरंभ सोलहवीं शती में वल्लभाचार्य तथा हितहरिवंश आदि महात्माओं ने लोक प्रचलित जिस श्रृंगार प्रधान रास में धर्म के साथ नृत्य, संगीत की पुनः स्थापना की और उसका नेतृत्व रसिक शिरोमणि श्रीकृष्ण को दिया था, वही राधा तथा गोपियों के साथ कृष्ण की श्रृंगार पूर्ण क्रीड़ाओं से युक्त होकर रासलीला के नाम से अभिहित हुआ।
  • रासलीला लोकनाट्य का प्रमुख अंग है। भक्तिकाल में इसमें राधा-कृष्ण की प्रेम-क्रीड़ाओं का प्रदर्शन होता था, जिनमें आध्यात्मिकता की प्रधानता रहती थी। इनका मूलाधार सूरदास तथा अष्टछाप के कवियों के पद और भजन होते थे। उनमें संगीत और काव्य का रस तथा आनन्द, दोनों रहता था। लीलाओं में जनता धर्मोपदेश तथा मनोरंजन साथ-साथ पाती थी, इनके पात्रों—कृष्ण, राधा, गोपियों— के संवादों में गम्भीरता का अभाव और प्रेमालाप का आधिक्य रहता था, कार्य की न्यूनता और संवादों का बाहुल्य होता था। इन लीलाओं में रंगमंच भी होता था, किन्तु वह स्थिर और साधारण कोटि का होता था। प्रायः रासलीला करने वाले किसी मन्दिर में अथवा किसी पवित्र स्थान या ऊँचे चबूतरे पर इसका निर्माण कर लेते थे। देखने वालों की संख्या अधिक होती थी। रास करने वालों की मण्डलियाँ भी होती थीं, जो पूना, पंजाब और पूर्वी बंगाल तक घूमा करती थीं।
  • किन्तु उन्नीसवीं शती में रीति-कविता के प्रभाव से रास-लीलाओं की धार्मिकता, रस और संगीत को धक्का लगा। अतः उनमें न तो रस का प्रवाह रहा और न संगीत की शास्त्रीयता। उनमें केवल नृत्य, वाग्विलास, उक्ति वैचित्रयता की प्रधानता हो गयी। उनका उद्देश्य केवल मनोरंजन रह गया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘श्रीचन्द्रावली नाटिका’ पर रासलीला का प्रभाव है और आधुनिक काल में वियोगी हरि की ‘छद्म-योगिनी नाटिका’ भी रासलीला से प्रभावित है। आज भी उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों— फर्रुखाबाद, मैनपुरी, इटावा— विशेषतया मथुरा-वृन्दावन, आगरा की रासलीलाएँ प्रसिद्ध है। ये प्रायः कार्त्तिक-अगहन, वैशाख और सावन में हुआ करती है।
  • आज भी रासलीला रंगमंच साधारण होता है। वह प्रायः मन्दिरों की मणि पर, ऊँचे चबूतरों या ऊँचे उठाये हुए तख्तों पर बाँसों और कपड़ों से बनाया जाता है। उसमें एक परदा रहता है। पात्र परदे के पीछे से आते रहते है। द्दश्यान्तर की सूचना पात्रों के चले जाने पर कोई निर्देशक देता है। रंगभूमि में गायक और वादक बैठे होते हैं और सामने प्रेक्षकों के लिए खुले आकाश का प्रेक्षागृह रहता है; कभी-कभी चाँदनी या चँदोबा भी तान दिया जाता है। वास्तविक रासलीला प्रारम्भ होने से पूर्व आयी हुई जनता के मनोरंजन और आने वाली जनता के प्रतीक्षार्थ रंगभूमि में भजन-गान ढोलक, मंजीरा, हारमोनियम तथा सितार के साथ होता रहता है। लीलारम्भ से कुछ पहले सूत्रधार की भाँति एक ब्राह्मण या पुरोहित व्यवस्थापक के रूप में आता है, जो राधा-कृष्ण की दिखलायी जाने वाली लीला का निर्देश करता है और उसके पात्रों और लीला (कथा) की प्रशंसा कर प्रेक्षकों उनकी ओर आकृष्ट करता है। यह प्ररोचना और प्रस्तावना जैसा कार्य है। पश्चात परदा उठता है और राधा-कृष्ण की युगल छवि की आरती की जाती है। आरती के समय रंगभूमि के गायकादि तथा प्रेक्षक उठ खड़े होते है।
  • परदा फिर गिरता है और उसके अनन्तर निश्चित लीला का कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाता है। पात्रों में राधा-कृष्ण तथा गोपिकाएं रहती है। बीच-बीच में हास्य का प्रसंग भी रहता है। विदूषक के रूप में ‘मनसुखा’ रहता है, जो विभिन्न गोपिकाओं के साथ प्रेम एंव हँसी की बातें करके कृष्ण के प्रति उनके अनुराग को व्यंजित करता है; साथ-ही-साथ दर्शकों का भी मनोरंजन करता है। जब कभी परदें के पीछे नेपथ्य में अभिनेताओं को वेशविन्यास या रूपसज्जा करने में विलम्ब होता है तो उस अवकाश के क्षणों के लिए कोई हास्य या व्यंग्यपूर्ण दो पात्रों के प्रहसन की योजना कर ली जाती है, किन्तु यह कार्य लीला से सम्बन्धित नहीं होता। रास-कार्य सम्पन्न करने वाले रासधारी कहलाते है। वे प्रायः बालक और युवा पुरुष होते है। लीला में हास्य का पुट और श्रृंगार का प्राधान्य रहता है। उसमें कृष्ण का गोपियों, सखियों के साथ अनुरागपूर्ण वृताकार नृत्य होता है। कभी कृष्ण गोपियों के कार्यों एवं चेष्टाओं का अनुकरण करते है और कभी गोपियाँ कृष्ण की रूप चेष्टादि का अनुकरण करती है और कभी राधा सखियों के, कृष्ण की रूपचेष्टाओं का अनुकरण करती है। यही लीला है। कभी कृष्ण गोपियों के हाथ में हाथ बाँधकर नाचते है इन लीलाओं की कथावस्तु प्रायः राधा-कृष्ण की प्रेम क्रीड़ाएँ होती है, जिनमें सूरदास आदि कृष्ण भक्त कवियों के भजन गाये जाते है। कार्य की अधिकता नहीं, वरन पद प्रधान संवाद, सौन्दर्य, नृत्य, गीत, वेणुध्वनि, ताल, लय, रस की अबाध धारा बहती है। रंग संकेतों के लिए पर्दे के पीछे निर्देशक रहता है, जो अभिनेताओं के भूल जाने पर संवादों के वाक्य या भजन एंव पद की पंक्ति, स्मरण करा देता है। लीला में अभिनय कम, संलाप अधिक रहता है। कृष्ण धीर ललित नायक होते है, जो समस्त कलाओं के अवतार माने जाते है। राधा उनकी अनुरंजक शक्ति के रूप में दिखायी जाती है। वहीं समस्त गुणों एवं कलाओं की ख़ान नायिका बनती है। गोपियाँ, सखियाँ— सभी यौवना और भावप्रगल्भा होती है। उनमें शोभा, विलास, माधुर्य, कान्ति, दीप्ति, विलास, विच्छित, प्रागल्भ्य, औदार्य, लीला, हाव, हेला, भाव आदि सभी अलंकार होते हैं।
  • लीला के अन्त में युगल छवि की पुनः आरती होती है। इस बार प्रेक्षक जनता भी आरती लेती है और आरती के थाल में पैसे-रूपये के रूप में भेंट चढ़ाती है। इस बार आरती के बाद लीला के विषय में मंगल कामना की जाती है। यह एक प्रकार का भरत वाक्य है। पश्चात लीला का कार्यक्रम समाप्त हो जाता है और पटाक्षेप हो जाता है। रासलीला हल्लीश, श्रीगदित, काव्य, गोष्टी, नाटयरासक का ही लोकाश्रय द्वारा परिवर्तित नाटयरूप है। आस्थावान व्यक्ति रासलीला का अपनी मान्यता के अनुसार भाष्य करते हैं। श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं, राधा और गोपियां जीव आत्माएं, रासलीला परमात्मा और जीवात्मा का सम्मिलन है। जो लोक में भी राधा तथा अन्य सखियों के साथ कृष्ण नित्य रासलीला में लगे रहते हैं।

वीथिका



वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः