दिगेन्द्र सिंह

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दिगेन्द्र सिंह
पूरा नाम नायक दिगेन्द्र सिंह
जन्म 3 जुलाई, 1969
जन्म भूमि नीमकाथाना तहसील, ज़िला सीकर, राजस्थान
अभिभावक पिता- शिवदान सिंह
बटालियन 2 राजपूताना राइफल्स
सेवा काल 1985 से 2005
युद्ध कारगिल युद्ध
सम्मान महावीर चक्र

सेना पदक

नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी अपने पिता से प्रेरित दिगेन्द्र सिंह 2 राजपूताना राइफल्स में भर्ती हुए थे। भर्ती के दो साल बाद 1985 में उनको श्रीलंका के जंगलों में प्रभाकरण के तमिल टाइगर्स के खिलाफ अभियान के लिए गई इंडियन पीस कीपिंग फोर्स में भेजा गया।
अद्यतन‎

नायक दिगेन्द्र सिंह (अंग्रेज़ी: Digendra Singh, जन्म- 3 जुलाई, 1969) भारत के वह नायक, जिन्हें 30 साल की उम्र में तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने देश दूसरे सबसे बड़े गैलेंट्री अवॉर्ड 'महावीर चक्र' से नवाजा था। कारगिल युद्ध के दौरान उन्होंने अपनी टीम के सहयोग से 48 पाकिस्तानी सैनिकों को मारकर न केवल देश को बड़ी कामयाबी दिलाई बल्कि पांच गोलियां लगने के बावजूद पाकिस्तानी मेजर मारते हुए तोलोलिंग की चोटी पुन: फतह की और 13 जून, 1999 की प्रभात बेला में तिरंगा लहरा दिया।

परिचय

राजस्थान के सीकर जिले की नीमकाथाना तहसील के एक गांव में जाट परिवार में जन्मे दिगेन्द्र सिंह बचपन से सैन्य माहौल में पले-बढ़े। उनके नाना स्वतंत्रता सेनानी रहे थे तो पिता भारतीय सेना के वीर योद्धा रहे। 1947-1948 के युद्ध के दौरान दिगेन्द्र के पिता शिवदान सिंह के जबड़े में 11 गोलियां लगी थीं, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी थी।

सेना में भर्ती

अपने पिता से प्रेरित दिगेन्द्र सिंह 2 राजपूताना राइफल्स में भर्ती हो गए थे। राजपूताना राइफल्स में भर्ती के दो साल बाद 1985 में दिगेन्द्र सिंह को श्रीलंका के जंगलों में प्रभाकरण के तमिल टाइगर्स के खिलाफ अभियान के लिए गई इंडियन पीस कीपिंग फोर्स में भेजा गया। इस अभियान के दौरान ही एक ही दिन में दिगेन्द्र ने आतंकियों को मार गिराया, दुश्मन का गोला-बारूद का ठिकाना नष्ट किया और उनके कब्जे से पैराट्रूपर्स को छुड़ाया। यह सब अचानक हुआ था, जब वह अपने जनरल के साथ गाड़ी से जा रहे थे और रास्ते में पुल के नीचे से लिट्टे के कुछ आतंकियों ने जनरल की गाड़ी पर हेंड ग्रेनेड फेंका था, दिगेन्द्र ने उसी ग्रेनेड को कैच किया और वापस आतंकियों की ओर उछाल दिया था।[1]

इसके कुछ साल बाद उन्हें कश्मीर के कुपवाड़ा में भेजा गया। जहां उन्होंने आंतकियों का काम तमाम करना जारी रखा। उन्होंने एरिया कमांडर आतंकी मजीद खान का खात्मा किया। अपनी वीरता तथा शौर्य के लिए सेना पदक से सम्मानित किए गए। इसके तकरीबन सालभर बाद ही 1993 में दिगेन्द्र सिंह ने हजरतबल दरगाह को आंतकियों के चंगुल से आाजद कराने में अहम भूमिका निभाई थी। जिसके लिए भी उन्हें सराहना मिली। लेकिन दिगेन्द्र के लिए यह सब छोटी उपलब्धियां थीं। वह बेबाक और निर्भीक योद्धा अपनी मातृभूमि के लिए कुछ बड़ा करना चाहता था। इसका उसे मौका भी मिला।

बेहतरीन कमांडों

साल 1999 के आते-आते नायक दिगेन्द्र सिंह उर्फ कोबरा सेना के बेहतरीन कमांडों में गिने जाने लगे थे। इसी वर्ष 13 जून के दिन जो हुआ उसने दिगेन्द्र सिंह को जीते जी अमर कर दिया। उन्होंने 15,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित तोलोलिंग की चोटी और पोस्ट जीता बल्कि उस पर तिरंगा फहराकर हिंदुस्तान को पहली बड़ी एवं महत्वपूर्ण कामयाबी दिलाई। इस अभियान के दौरान उन्हें पांच गोलियां लगीं, लेकिन वे न रुके, न थके, न अटके, न भटके और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते चले गए। उनकी राह में जो भी आया, उसका फुर्ती के साथ खात्मा करते गए।

कारगिल युद्ध

कारगिल युद्ध छिड़ने के बाद दिगेन्द्र की यूनिट 2 राजपूताना राइफल्स को 24 घंटें में कुपवाड़ा से पहुंचने और अगले 24 घंटे में जंगी मोर्चा संभालने के लिए तैयार रहने का निर्देश मिला था। तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वी. पी. मलिक ने तैयारी बैठक ली। इसमें दिगेन्द्र सिंह ने उन्हें तोलोलिंग चोटी पर चढ़ाई की अपनी योजना समझाई। जनरल मलिक के निर्देशानुसार नायक दिगेन्द्र को घातक टीम का कमांडर बनाया गया और उनके कमांडिंग ऑफिसर मेजर विवेक गुप्ता को बनाए गए। बफीर्ली पहाड़ी पर ठंड की कंपकपाहट के साथ रात के सन्नाटे में 12 जून की रात को चढ़ाई पूरी की। पाकिस्तानी सेना ने वहां 11 बंकर बना रखे थे। पहला और आखिरी बंकर दिगेन्द्र सिंह ने उड़ाया।[1]

जब दिगेन्द्र पहला बंकर उड़ाने के लिए रात के अंधेरे में दुश्मन के बंकर में घुस गए थे, तभी इसकी भनक लगते ही दुश्मन ने ताबड़तोड़ फायरिंग की। उस दौरान उन्हें चार गोलियां लगीं। इनके अलावा दो गोली उनकी एके 47 पर लगीं थीं, जो हाथ से छूट गई थी। उस वक्त अपनी सूझबूझ से घायल दिग्रेंद्र ने अपना और अपने साथियों की हिफाजत का ध्यान रखते हुए तुरंत एक ग्रेनेड उस बंकर में फेंक दिया। इसके बाद अचानक से पीछे से हमला हुआ और कई साथी गंभीर घायल हो गए। फिर उनकी कंपनी ने उन 30 हमलावरों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। उधर दिगेन्द्र सिंह कुछ साथियों के साथ आगे बढ़ते रहे और बीच-बीच में स्टेरॉयड युक्त पेनकिलर के इंजेक्शन का इस्तेमाल करते रहे। ऐसा करके दिगेन्द्र और उनकी टीम ने पूरे 11 बंकर तबाह कर दिए थे।

इस बीच, सुबह चार बजे उनके आखिरी साथी सरदार सुमेर सिंह राठौड़ को भी गोली लग चुकी थी। फिर उसकी एलएमजी लेकर दिगेन्द्र पहाड़ी की ओर आगे बढ़े, तब उन्हें रास्ते में पाकिस्तानी सेना मेजर अनवर खान दिखाई दिया। दोनों का आमना-सामना हुआ तो दिगेन्द्र सिंह एलएमजी से एक ही गोली चला पाए थे, तभी अनवर खान ने उन पर अपनी पिस्तौल से गोली दागी जो दिगेन्द्र के कमर के नीचे पांव में लगी। तभी उसकी गोलियां खत्म हो चुकी थी। इसके बाद अनवर ने दिगेन्द्र सिंह के ऊपर झपट्टा मारा, लेकिन दिगेन्द्र ने उसका गला पकड़ कर रखा और अपना खंजर निकालकर झटके से उसकी गर्दन उड़ा दी।

जब वाजपेयी बोले- वाह!

सवेरा होने वाला था, 13 जून, 1999 को सुबह के साढ़े चार बजे थे। तोलोलिंग की चोटी पर तिरंगा लहराने लगा था। नायक दिगेन्द्र सिंह अपनी इस जीत से ज्यादा उत्साहित नहीं थे, वे अपने साथियों को खो देने के कारण अंदर से टूट चुके थे। वे गंभीर घायल थे, रो रहे थे। उसके बाद उन्हें कुछ याद नहीं। जब उनकी आंख खुली तो वे श्रीनगर के सैन्य अस्पताल में थे। दिगेन्द्र सिंह के अनुसार- उन्हें नहीं पता था कि उन्होंने कितनों को मारा। इसका पता तब चला, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी पीठ थपथपाकर कहा कि "वाह मेरे कलियुगी भीम बेटे, तुमने 48 को मारा। दो और मार देते तो हाफ सेंचुरी लग जाती। तुम अभी भी नॉट आउट हो।"[1]

महावीर चक्र

हालांकि, इसके बाद दिगेन्द्र सिंह का उपचार दो-तीन साल तक चलता रहा और बाद में वे अनफिट करार दिए जाने के बाद सेना से रिटायर हो गए। उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें 'महावीर चक्र' से सम्मानित किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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