ज्ञानाश्रयी शाखा: Difference between revisions
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'''ज्ञानाश्रयी शाखा''' के भक्त-कवि 'निर्गुणवादी' थे, और नाम की उपासना करते थे। गुरु का वे बहुत सम्मान करते थे, और जाति-पाति के भेदों को नहीं मानते थे। वैयक्तिक साधना को वह प्रमुखता देते थे। मिथ्या आडंबरों और रूढियों का विरोध करते थे। लगभग सभी संत अनपढ़ थे, लेकिन अनुभव की दृष्टि से बहुत ही समृध्द थे। प्रायः सभी सत्संगी थे और उनकी भाषा में बहुत सी बोलियों का | '''ज्ञानाश्रयी शाखा''' के भक्त-कवि 'निर्गुणवादी' थे, और नाम की उपासना करते थे। गुरु का वे बहुत सम्मान करते थे, और जाति-पाति के भेदों को नहीं मानते थे। वैयक्तिक साधना को वह प्रमुखता देते थे। मिथ्या आडंबरों और रूढियों का विरोध करते थे। लगभग सभी संत अनपढ़ थे, लेकिन अनुभव की दृष्टि से बहुत ही समृध्द थे। प्रायः सभी सत्संगी थे और उनकी [[भाषा]] में बहुत सी बोलियों का घालमेल था, इसीलिए इस भाषा को '''सधुक्कड़ी''' कहा गया। साधारण जनता पर इन संतों की वाणी का ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा। इन संतों में प्रमुख [[कबीरदास]] थे। अन्य मुख्य संत कवि [[नानक]], [[रैदास]], [[दादूदयाल]], [[सुंदरदास]] तथा [[मलूकदास]] हैं। | ||
ज्ञानाश्रयी शाखा को 'निर्गुण काव्यधारा' या 'निर्गुण सम्प्रदाय' नाम भी दिया गया है। इस शाखा की विशेषता यह थी कि इसने अधिकतर प्रेरणा भारतीय स्रोतों से ग्रहण की। इसमें ज्ञानमार्ग की प्रधानता थी। इसलिए [[पं. रामचंद्र शुक्ल]] ने इसे 'ज्ञानाश्रयी शाखा' कहा है।<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 86</ref> इस शाखा के कवियों ने भक्ति-साधना के रूप में योग-साधना पर बहुत बल दिया है। इस शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीरदास हुए हैं। | |||
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Latest revision as of 08:23, 26 September 2013
ज्ञानाश्रयी शाखा के भक्त-कवि 'निर्गुणवादी' थे, और नाम की उपासना करते थे। गुरु का वे बहुत सम्मान करते थे, और जाति-पाति के भेदों को नहीं मानते थे। वैयक्तिक साधना को वह प्रमुखता देते थे। मिथ्या आडंबरों और रूढियों का विरोध करते थे। लगभग सभी संत अनपढ़ थे, लेकिन अनुभव की दृष्टि से बहुत ही समृध्द थे। प्रायः सभी सत्संगी थे और उनकी भाषा में बहुत सी बोलियों का घालमेल था, इसीलिए इस भाषा को सधुक्कड़ी कहा गया। साधारण जनता पर इन संतों की वाणी का ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा। इन संतों में प्रमुख कबीरदास थे। अन्य मुख्य संत कवि नानक, रैदास, दादूदयाल, सुंदरदास तथा मलूकदास हैं।
ज्ञानाश्रयी शाखा को 'निर्गुण काव्यधारा' या 'निर्गुण सम्प्रदाय' नाम भी दिया गया है। इस शाखा की विशेषता यह थी कि इसने अधिकतर प्रेरणा भारतीय स्रोतों से ग्रहण की। इसमें ज्ञानमार्ग की प्रधानता थी। इसलिए पं. रामचंद्र शुक्ल ने इसे 'ज्ञानाश्रयी शाखा' कहा है।[1] इस शाखा के कवियों ने भक्ति-साधना के रूप में योग-साधना पर बहुत बल दिया है। इस शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीरदास हुए हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 86