लेखन -गजानन माधव मुक्तिबोध: Difference between revisions
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उसने दोनों पत्र जेब से निकाले और मेरे सामने रख दिए। मैंने पढ़ने से इनकार कर दिया। मैं चुराकर किसी के प्राइवेट पत्र पढ़ता नहीं हूँ। पर न मालूम क्यों (मैं अब जानता हूँ क्यों का उत्तर और वह यह है कि मैं नहीं चाहता था कि उसके विचारों की पुष्टि हो।) मैंने नहीं पढ़ा, दूर फेंक दिया। | उसने दोनों पत्र जेब से निकाले और मेरे सामने रख दिए। मैंने पढ़ने से इनकार कर दिया। मैं चुराकर किसी के प्राइवेट पत्र पढ़ता नहीं हूँ। पर न मालूम क्यों (मैं अब जानता हूँ क्यों का उत्तर और वह यह है कि मैं नहीं चाहता था कि उसके विचारों की पुष्टि हो।) मैंने नहीं पढ़ा, दूर फेंक दिया। | ||
ऐसे पत्रों में तो उपन्यास का मजा आता है। वैसे तो, पुलिस के रोजनामचे में भी रोज की कई सौ कहानियाँ पढ़ने को मिल सकती है, यदि कोई० इतना धीर हो कि वे सब पढ़ ले; पर वह मजा उसमें नहीं आता। कारण यह कि पत्रों में व्यक्तिगत-अभिव्यक्ति होती है जिसका उसमें अभाव है। चोर-पाठक को पत्र-प्रेषक और पत्र के उचित स्वामी की कल्पना आप करनी होती है। और इन्हीं कल्पना में ही एक | ऐसे पत्रों में तो उपन्यास का मजा आता है। वैसे तो, पुलिस के रोजनामचे में भी रोज की कई सौ कहानियाँ पढ़ने को मिल सकती है, यदि कोई० इतना धीर हो कि वे सब पढ़ ले; पर वह मजा उसमें नहीं आता। कारण यह कि पत्रों में व्यक्तिगत-अभिव्यक्ति होती है जिसका उसमें अभाव है। चोर-पाठक को पत्र-प्रेषक और पत्र के उचित स्वामी की कल्पना आप करनी होती है। और इन्हीं कल्पना में ही एक ख़ास रस होता है जो चोर-पाठक ही जानता है। मानस-विश्लेषक तो कई बातें खोज निकाल सकता है। यदि साधारण चोर-पाठक तो गेप्स फिल करने में मजा आता है तो मानस-विश्लेषक को आदमी पढ़ने में मजा आता है, कोई ख़ास कहानी पढ़ने में नहीं। | ||
बाप पुत्र को पाले, बड़ा करे जब वह उपदेश दे तो लड़के मुँह मोड़ें। उसके अपमान के लिए इतना | बाप पुत्र को पाले, बड़ा करे जब वह उपदेश दे तो लड़के मुँह मोड़ें। उसके अपमान के लिए इतना काफ़ी नहीं है? | ||
पिता ने अपना हृदय निकाला है कठोर शब्दों में। जी हाँ, वह लड़के को पीटेगा क्योंकि वह उसको प्यार करता है, दुश्मनी नहीं।... | पिता ने अपना हृदय निकाला है कठोर शब्दों में। जी हाँ, वह लड़के को पीटेगा क्योंकि वह उसको प्यार करता है, दुश्मनी नहीं।... |
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स्फूर्ति प्रेरित लेखन अधिक सजीव, साथ ही साथ अधिक जीवन-प्रद होने के कारण साहित्य में अपना विशेष स्थान रखता है। किन्तु, पिता का अपने लड़के को पत्र ऐसा है, यह विचारणीय है। वह मुझसे कहने लगा, 'उसने एक ही साथ दो पात्र पाये और भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के वे पत्र उसके लिए एक अजीब बात थी। एक में अरब के रेगिस्तान की गर्मी तो दूसरे में कश्मीर की वासन्ती चाँदनी ! एक में डाँट, तो दूसरे में विनय-भरी आज्ञा ! कितना अन्तर !! उफ़ !!'
वह कहने लगा, 'एक तो मेरे पिता का पत्र था और ....' दूसरा मुसकुराकर बोला, 'मेरे एक स्त्री-मित्र का। तो हृदय किसमें था? स्नेहिनी में ! पिता? उफ अरेबिया की गर्मी, साइबेरिया की ठंड !'
मैं उससे बहस करना नहीं चाहता था, क्योंकि मैंने देखा है इन विषयों पर बहस हो ही नहीं सकती। मैं चुप था, क्योंकि रहना चाहिए था। वह मुसकुराता छिपी बातों को बता रहा था और प्रकट बातों को छिपा रहा था।
पिता जीवन के अन्धकार में जो देख पाता है वही तो पुत्र के सामने रखता है। वह अपने पुत्र की प्रशंसा के बदले उपदेशों के पुल बाँधता है क्योंकि वह समझता है उसका बच्चा कोमल (चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो) और उसकी सहायता के बिना कठिनाइयाँ पार नहीं कर सकता। प्रशंसा के पुल पर वह स्वयं चला है वह उसकी सरलता का द्योतक है। फिर भी, इन दोनों के होते हुए, वह पूरा हक़दार है कि वह अपने बच्चे को मार्ग दिखलाये, इसलिये कि वह पिता है। उसके उपदेश जिनको उसने जीवन में अन्धकार की गहरायी में उतरकर खोज निकाला है, उसकी निजी सम्पत्ति है, और उसे वह अपने बच्चे को देना चाहता है।
पर लड़के कब मानने लगे! आखिर उन्होंने भी अपने पिताजी का कब माना! बतलाइए?
मैं डरा, यही तो युक्ति है! अकाट्य युक्ति!!
मेरे सामने फेमिली-वार्ड है, थोड़ी दूर पर, जिसकी छत नीम के पेड़ों की आड़ आ गयी है और जिसके काले-काले दरवाजे दीवारों की सफेदी से पहले दिखते हैं। इससे जरा हटकर, एक ओर, आड़ा चिल्ड्रेन-वार्ड है जहाँ एक न एक सायकल रखी रहती है और मुसलमान, हिन्दू औरतें अपने-अपने रुग्ण बच्चों की ही बातें किया करती हैं। सामने, इससे ज़रा दूर, महादेव का मन्दिर है जिसका दरवाज़ा बन्द है और वहीं ओटाले पर दो लड़के बातचीत कर रहे हैं, शायद लड़ रहे हों...
मेरा तो जी नहीं लगता। कब तक देखूँ यह पीला पीपल प्रचंड महारानी फीमेल हॉस्पीटल और आसपास की कन्हेर की झाड़ियाँ...
उसका जन्म भी इसी अस्पताल में हुआ होगा? उसी पलंग पर, उसी पालने में उसका नवीन शरीर नि:स्तब्ध कौतूकपूर्ण दृष्टि से नवीन जगत् को देखता होगा। जी हाँ, नवीन जगत्! सामने electric lamp और सफेदपोश नर्स जिसे शायद वह छाया मात्र समझता है और पास में एक व्यक्ति, जी हाँ बिलकुल अपरिचित,--उसकी माँ लेटी हुई। एक आदमी आता है, उसे उठाता है, उसको चूमता है। उसकी मूँछ के स्पर्श से वह नीला-पीला हो उठता है, रोने लगता है।
उस बाप ने उसे नीचे रख दिया। उसकी माँ के पास और न मालूम क्यों, इन तीनों की आँखों में एक सपना दीख रहा है। बाप अपनी प्राप्ति पर खुश है, अशक्त माँ प्रसन्न !
देखो, इसकी नाक तो तुम्हारे सरीखी है - बिलकुल तुम्हारी ही....
बाप कहता है- वाह, इसकी आँखें तुम्हारे ही सरीखी हैं, तुम्हारा रंग भी चुरा लिया है उसने; मुसकुराता है।
इन दोनों की मुसकराहट में उनके प्रेम की गहराई भरी हुई है। आँखों में सन्तोष की चमक खेल जाती है।
बाप स्त्री के शिथिल अशक्त शरीर पर हाथ फेर, बच्चों का कान पकड़, मुख चूम, दोनों की ओर देखते हुए चल देता है। पर यह कौन है? इन दोनों की अभिव्यक्ति, जी हाँ, अब मिस्टर सो एंड सो बी.ए,...एम.ए.(प्रीव) और यह हजरत कहते हैं बाप क्या है....अरेबिया.....साइबेरिया.....
उसने दोनों पत्र जेब से निकाले और मेरे सामने रख दिए। मैंने पढ़ने से इनकार कर दिया। मैं चुराकर किसी के प्राइवेट पत्र पढ़ता नहीं हूँ। पर न मालूम क्यों (मैं अब जानता हूँ क्यों का उत्तर और वह यह है कि मैं नहीं चाहता था कि उसके विचारों की पुष्टि हो।) मैंने नहीं पढ़ा, दूर फेंक दिया।
ऐसे पत्रों में तो उपन्यास का मजा आता है। वैसे तो, पुलिस के रोजनामचे में भी रोज की कई सौ कहानियाँ पढ़ने को मिल सकती है, यदि कोई० इतना धीर हो कि वे सब पढ़ ले; पर वह मजा उसमें नहीं आता। कारण यह कि पत्रों में व्यक्तिगत-अभिव्यक्ति होती है जिसका उसमें अभाव है। चोर-पाठक को पत्र-प्रेषक और पत्र के उचित स्वामी की कल्पना आप करनी होती है। और इन्हीं कल्पना में ही एक ख़ास रस होता है जो चोर-पाठक ही जानता है। मानस-विश्लेषक तो कई बातें खोज निकाल सकता है। यदि साधारण चोर-पाठक तो गेप्स फिल करने में मजा आता है तो मानस-विश्लेषक को आदमी पढ़ने में मजा आता है, कोई ख़ास कहानी पढ़ने में नहीं।
बाप पुत्र को पाले, बड़ा करे जब वह उपदेश दे तो लड़के मुँह मोड़ें। उसके अपमान के लिए इतना काफ़ी नहीं है?
पिता ने अपना हृदय निकाला है कठोर शब्दों में। जी हाँ, वह लड़के को पीटेगा क्योंकि वह उसको प्यार करता है, दुश्मनी नहीं।... (संभावित रचनाकाल : 1935-36, अपूर्ण, अप्रकाशित)
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