भाषाभूषण: Difference between revisions
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भाषाभूषण के लेखक महाराज जसवंतसिंह, जोधपुर वाले थे और इसका रचना काल सन 1644 ई. है। इसके कई सम्पादित संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसका सम्पादन ब्रजरत्नदास तथा गुलाबराय ने किया था। इसके मुख्य संस्करण मन्नालाल, बनारस (1886 ई.), वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई (1814 ई.) तथा रामचन्द्र पाठक, बनारस (1925 ई.) ने निकाले हैं। यह संस्कृत ग्रंथ 'चन्द्रालोक' की शैली पर एक ही दोहे में लक्षणोदाहरण प्रस्तुत करते हुए अप्पय दीक्षित के 'कुवलयानन्द' से प्रभावित होकर लिखा गया है। हिन्दी में अलंकार विषय को इतनी सरलता, सुगमता और संक्षिप्तता के साथ प्रस्तुत करने वाला यह सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है, जिसे सहज ही कण्ठस्थ किया जा सकता है।[1]
नवीन रचना
गोपाकृत 'अलंकार चन्द्रिका' भाषाभूषण की पूर्ववर्त्ती रचना होकर भी इतनी प्रभावपूर्ण सिद्ध नहीं हुई। यह ग्रंथ ऐसे व्यक्ति के लिए रचा गया है, जो भाषा का पण्डित और काव्यरसिक हो। प्रौढ़ आचार्य तो संस्कृत ग्रंथों से लाभ उठा ही लेते हैं, इसकी रचना तो शिक्षार्थियों के लाभार्थ हुई है। सम्भवत: इसी कारण लेखक ने इस रचना को 'नवीन' कहा है-
"ताही नरके हेतु यह कीन्हों ग्रंथ नवीन। जो पण्डित भाषा-निपुन, कविता-विशै प्रवीन।"[2]
इससे पूर्व-प्रचलित ग्रंथ परम्परा का संकेत भी ग्रहण किया जा सकता है।
पाँच प्रकाशों में लेखन
इस ग्रंथ की रचना 5 प्रकाशों में हुई है- प्रथम प्रकाश में 5 दोहों में मंगलाचरण, द्वितीय में 17 दोहों में नायिकाभेद, तृतीय में 10 दोहों में हावभाव निरूपण, चतुर्थ में 156 दोहों में अर्थालंकार तथा पाँचवें में 10 दोहों में शब्दालंकारों का वर्णन है। अंत में 5 दोहों में ग्रंथ-प्रयोजन दिया गया है। लेखक की शब्दालंकारों के प्रति विशेष रुचि नहीं है। अनुप्रास का वर्णन भी यथेष्ट समझा गया है। केवल 36 दोहों में अन्य काव्यांगों का संकेत कर दिया गया है। अलंकारप्राधान्य के कारण ही इसे 'भाषाभूषण' नाम दिया गया है। लेखक का विचार है कि विविध ग्रंथों के अध्ययनोपरांत लिखित इस ग्रंथ के 108 अलंकारों का ज्ञान प्राप्त लर लेने पर व्यक्ति को साहित्य के विविधार्थ तथा रस सुगम हो जायेंगे।[1]
अलकांरों की प्रधानता
अलंकारों के लक्षणों में स्वतंत्रता से भी काम लिया गया है और कहीं-कहीं छायानुवाद भी रखा गया है। छायानुवाद अधिक सरस, मधुर और आकर्षक है। अलंकार भेदों के निरूपण के अवसर पर पहले एक साथ विशेष अलंकार के भेदों का लक्षण देकर तदुपरांत एक साथ उदाहरण दिये गये हैं अन्यथा दोहे की एक पंक्ति में लक्षण तथा दूसरी में उदाहरण देने की शैली अपनायी गयी है। लक्षणों में कसावट और उदाहरणों की उपयुक्तता प्रशंसनीय है। 'कुवलयानन्द' की आत्मा ही मानो भाषा में अवतरित हो गयी है। अलंकार-भेद, उनके क्रम तथा उनकी संख्या 'कुवलयानन्द' के ही अनुकूल है तथा रसवत् अलंकार तथा भावोदयादि, जैसे- 'कुवलयानन्द' में परमत के रूप में उपस्थित हैं, वैसे ही 'भाषाभूषण' में भी उनकी उपेक्षा है। उपमा, रूपक, निदर्शनादि कुछ अलंकारों के लक्षणों के सम्बन्ध में लेखक मौन है। लक्षणों में संस्कृत-शब्दावली के कारण यत्र-तत्र कुछ क्लिष्टता आ गयी है। शब्दालंकारों के लिए लेखक मम्मट, विश्वनाथ तथा दण्डी का आभारी है।
टीकाएँ
इस ग्रंथ की प्राचीन टीकाओं में वंशीधर, रणधीर सिंह, प्रतापसाहि, गुलाब कवि तथा हरिचरणदास की टीका प्राप्य हैं तथा दलपतिराय वंशीधर का सन 1736 ई. का 'अलंकार रत्नाकर' नामक तिलक महत्त्वपूर्ण है। आधुनिक टीकाओं में गुलाबराय कृत (साहित्य रत्न भण्डार, आगरा द्वारा प्रकाशित) टीका प्रसिद्ध है तथा ब्रजरत्नदास, रामचन्द्र पाठक (बनारस), हिन्दी साहित्य कुटीर (बनारस), वेंकटेश्वर प्रेस (बम्बई), मन्नालाल (बनारस) की टीकाएँ भी प्रकाशित हुई हैं। प्राचीन लेखकों में रामसिंह के 'अलंकार दर्पण' के लक्षण इसी से प्रभावित होकर लिखे गये हैं। सोमनाथ कृत 'रसपीयूषनिधि' में इसके समान अर्थालंकारों का वर्णन किया गया है तथा श्रीधर ओझा ने तो 'भाषाभूषण' नामक इसके समान एक ग्रंथ की रचना ही कर डाली है।[1]
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