श्रृंगार रस: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "श्रृंगार" to "शृंगार") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (व्यवस्थापन ने श्रृंगार रस से पुनर्निर्देश हटाकर शृंगार रस को उसपर स्थानांतरित किया: Text replacement - "...) |
||
(2 intermediate revisions by the same user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
''' | '''श्रृंगार रस''' को रसराज या रसपति कहा गया है। मुख्यत: संयोग तथा विप्रलंभ या वियोग के नाम से दो भागों में विभाजित किया जाता है, किंतु धनंजय आदि कुछ विद्वान् विप्रलंभ के पूर्वानुराग भेद को संयोग-विप्रलंभ-विरहित पूर्वावस्था मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथा शेष विप्रयोग तथा संभोग नाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अनेक परिस्थितियों के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल आश्रय भेद से नायकारब्ध, नायिकारब्ध अथवा उभयारब्ध, प्रकाशन के विचार से प्रच्छन्न तथा प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तथा प्रकाशनप्रकार के विचार से संक्षिप्त, संकीर्ण, संपन्नतर तथा समृद्धिमान नामक भेद किए जाते हैं तथा विप्रलंभ के पूर्वानुराग या अभिलाषहेतुक, मान या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, विरह तथा करुण प्रिलंभ नामक भेद किए गए हैं। श्रृंगार रस के अंतर्गत नायिकालंकार, [[ऋतु]] तथा प्रकृति का भी वर्णन किया जाता है। | ||
====उदाहरण==== | ====उदाहरण==== | ||
; संयोग | ; संयोग श्रृंगार | ||
<poem>बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय। | <poem>बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय। | ||
सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। -[[बिहारी लाल]]</poem> | सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। -[[बिहारी लाल]]</poem> | ||
;वियोग | ;वियोग श्रृंगार (विप्रलंभ श्रृंगार) | ||
<poem>निसिदिन बरसत नयन हमारे, | <poem>निसिदिन बरसत नयन हमारे, | ||
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ -[[सूरदास]]</poem> | सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ -[[सूरदास]]</poem> | ||
==विप्रलम्भ | ==विप्रलम्भ श्रृंगार== | ||
{{Main|विप्रलम्भ | {{Main|विप्रलम्भ श्रृंगार}} | ||
भोजराज ने विप्रर्लभ- | भोजराज ने विप्रर्लभ-श्रृंगार की यह परिभाषा दी है-‘जहाँ रति नामक भाव प्रकर्ष को प्राप्त करे, लेकिन अभीष्ट को न पा सके, वहाँ विप्रर्लभ-श्रृंगार कहा जाता है’<ref>सरस्वती कण्ठाभरण, 5:45</ref>। | ||
भानुदत्त का कथन है-‘युवा और युवती की परस्पर मुदित पंचेन्द्रियों के पारस्परिक सम्बन्ध का अभाव अथवा अभीष्ट अप्राप्ति विप्रलम्भ है’<ref>रसतरंगिणी, 6</ref>। ‘साहित्यदर्पण’ में भोजराज की परिभाषा दुहराई गई है-‘यत्र तु रति: प्रकृष्टा नाभीष्टमुपैति विप्रलम्भोऽसौ’<ref> (3:187)</ref>। इन कथनों में अभीष्ट का अभिप्राय नायक या नायिका से है। उक्त आचार्यों ने अभीष्ट की अप्राप्ति ही विप्रलम्भ की निष्पत्ति के लिए आवश्यक मानी है। लेकिन पण्डितराज ने प्रेम की वर्तमानता को प्रधानता दी है। उनके अनुसार यदि नायक-नायिका में वियोगदशा में प्रेम हो तो, वहाँ विप्रलम्भ | भानुदत्त का कथन है-‘युवा और युवती की परस्पर मुदित पंचेन्द्रियों के पारस्परिक सम्बन्ध का अभाव अथवा अभीष्ट अप्राप्ति विप्रलम्भ है’<ref>रसतरंगिणी, 6</ref>। ‘साहित्यदर्पण’ में भोजराज की परिभाषा दुहराई गई है-‘यत्र तु रति: प्रकृष्टा नाभीष्टमुपैति विप्रलम्भोऽसौ’<ref> (3:187)</ref>। इन कथनों में अभीष्ट का अभिप्राय नायक या नायिका से है। उक्त आचार्यों ने अभीष्ट की अप्राप्ति ही विप्रलम्भ की निष्पत्ति के लिए आवश्यक मानी है। लेकिन पण्डितराज ने प्रेम की वर्तमानता को प्रधानता दी है। उनके अनुसार यदि नायक-नायिका में वियोगदशा में प्रेम हो तो, वहाँ विप्रलम्भ श्रृंगार होता है। उनका कथन है कि वियोग का अर्थ है यह ज्ञान की ‘मैं बिछुड़ा हूँ’, अर्थात् इस तर्कणा से वियोग में भी मानसिक संयोग सम्पन्न होने पर विप्रलम्भ नहीं माना जायेगा। स्वप्न-समागम होने पर वियोगी भी संयोग माना जाता है। | ||
Latest revision as of 07:54, 7 November 2017
श्रृंगार रस को रसराज या रसपति कहा गया है। मुख्यत: संयोग तथा विप्रलंभ या वियोग के नाम से दो भागों में विभाजित किया जाता है, किंतु धनंजय आदि कुछ विद्वान् विप्रलंभ के पूर्वानुराग भेद को संयोग-विप्रलंभ-विरहित पूर्वावस्था मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथा शेष विप्रयोग तथा संभोग नाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अनेक परिस्थितियों के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल आश्रय भेद से नायकारब्ध, नायिकारब्ध अथवा उभयारब्ध, प्रकाशन के विचार से प्रच्छन्न तथा प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तथा प्रकाशनप्रकार के विचार से संक्षिप्त, संकीर्ण, संपन्नतर तथा समृद्धिमान नामक भेद किए जाते हैं तथा विप्रलंभ के पूर्वानुराग या अभिलाषहेतुक, मान या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, विरह तथा करुण प्रिलंभ नामक भेद किए गए हैं। श्रृंगार रस के अंतर्गत नायिकालंकार, ऋतु तथा प्रकृति का भी वर्णन किया जाता है।
उदाहरण
- संयोग श्रृंगार
बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय।
सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। -बिहारी लाल
- वियोग श्रृंगार (विप्रलंभ श्रृंगार)
निसिदिन बरसत नयन हमारे,
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ -सूरदास
विप्रलम्भ श्रृंगार
- REDIRECTसाँचा:मुख्य
भोजराज ने विप्रर्लभ-श्रृंगार की यह परिभाषा दी है-‘जहाँ रति नामक भाव प्रकर्ष को प्राप्त करे, लेकिन अभीष्ट को न पा सके, वहाँ विप्रर्लभ-श्रृंगार कहा जाता है’[1]। भानुदत्त का कथन है-‘युवा और युवती की परस्पर मुदित पंचेन्द्रियों के पारस्परिक सम्बन्ध का अभाव अथवा अभीष्ट अप्राप्ति विप्रलम्भ है’[2]। ‘साहित्यदर्पण’ में भोजराज की परिभाषा दुहराई गई है-‘यत्र तु रति: प्रकृष्टा नाभीष्टमुपैति विप्रलम्भोऽसौ’[3]। इन कथनों में अभीष्ट का अभिप्राय नायक या नायिका से है। उक्त आचार्यों ने अभीष्ट की अप्राप्ति ही विप्रलम्भ की निष्पत्ति के लिए आवश्यक मानी है। लेकिन पण्डितराज ने प्रेम की वर्तमानता को प्रधानता दी है। उनके अनुसार यदि नायक-नायिका में वियोगदशा में प्रेम हो तो, वहाँ विप्रलम्भ श्रृंगार होता है। उनका कथन है कि वियोग का अर्थ है यह ज्ञान की ‘मैं बिछुड़ा हूँ’, अर्थात् इस तर्कणा से वियोग में भी मानसिक संयोग सम्पन्न होने पर विप्रलम्भ नहीं माना जायेगा। स्वप्न-समागम होने पर वियोगी भी संयोग माना जाता है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख