असुर: Difference between revisions
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Revision as of 08:09, 21 March 2011
- असु=प्राण, र=वाला (प्राणवान् अथवा शक्तिमान) बाद में धीरे-धीरे यह भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया। ऋग्वेद में 'असुर' वरूण तथा दूसरे देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है, जिसमें उनके रहस्यमय गुणों का पता लगाता है। किंतु परवर्ती युग में असुर का प्रयोग देवों (सुरों) के शत्रु रूप में प्रसिद्ध हो गया। असुरदेवों के बड़े भ्राता हैं एवं दोनों प्रजापति के पुत्र हैं।
- असुरों ने लगातार देवों के साथ युद्ध किया और प्राय: विजयी होते रहे। उनमें से कुछ ने तो सारे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया, जब तक कि उनका संहार इन्द्र, विष्णु, शिव आदि देवों ने नहीं किया। देवों के शत्रु होने के कारण उन्हें दुष्ट दैत्य कहा गया है, किंतु सामान्य रूप से वे दुष्ट नहीं थे। उनके गुरु भृगुपुत्र शुक्र थे जो देवगुरु बृहस्पति के तुल्य ही ज्ञानी और राजनयिक थे।
- महाभारत एवं प्रचलित दूसरी कथाओं के वर्णन में असुरों के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। साधारण विश्वास में वे मानव से श्रेष्ठ गुणों वाले विद्याधरों की कोटि में आते हैं। कथासरित्सागर की आठवीं तरङ्ग में एक प्रेम पूर्ण कथा में किसी में असुर का वर्णन नायक के साथ हुआ है।
- संस्कृत के धार्मिक ग्रंथों में असुर, दैत्य एवं दानव में कोई अंतर नहीं दिखाया गया है, किंतु प्रारम्भिक अवस्था में 'दैत्य एवं दानव' असुर जाति के दो विभाग समझे गये थे। दैत्य 'दिति' के पुत्र एवं दानव 'दनु' के पुत्र थे।
- देवताओं के प्रतिद्वन्द्वी रूप में 'असुर' का अर्थ होगा- जो सुर नहीं है;[1] अथवा जिसके पास सुर नहीं है; उनके पर्याय है:
- दैत्य
- दैतेय
- दनुज
- इन्द्रारि
- दानव
- शुक्रशिष्य
- दितिसुत
- पूर्वदेव
- सुरद्विट्
- देवरिपु
- देवारि
- रामायण में असुर की उत्पत्ति और प्रकार से बतायी गयी है:
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा[2] इत्यभिविश्रुता:।
अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता:॥
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