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राजस्थान शैली में जैन अथवा पश्चिम भारत की शैली के प्रमुख विषयों, और मुग़ल शैली के आकार का समन्वय था। इस प्रकार इस शैली में शिकार तथा राजदरबार के दृश्यों के अलावा राधा और कृष्ण की लीली जैसे धार्मिक विषयों को भी लेकर चित्र बनाए गए। इनके अलावा बारहमासा अर्थात वर्ष के विभिन्न मौसम तथा विभिन्न रागों पर आधारित चित्र भी बनाए गए। पहाड़ी शैली ने इस परम्परा को जारी रखा।  
 
राजस्थान शैली में जैन अथवा पश्चिम भारत की शैली के प्रमुख विषयों, और मुग़ल शैली के आकार का समन्वय था। इस प्रकार इस शैली में शिकार तथा राजदरबार के दृश्यों के अलावा राधा और कृष्ण की लीली जैसे धार्मिक विषयों को भी लेकर चित्र बनाए गए। इनके अलावा बारहमासा अर्थात वर्ष के विभिन्न मौसम तथा विभिन्न रागों पर आधारित चित्र भी बनाए गए। पहाड़ी शैली ने इस परम्परा को जारी रखा।  
  
==भाषा और साहित्य==
 
अखिल भारतीय स्तर पर सरकारी काम-काज तथा अन्य बातों के लिए फ़ारसी तथा संस्कृत भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका, तथा भक्ति आंदोलन के प्रभाव से प्रान्तीय भाषाओं के विकास की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। प्रान्तीय भाषाओं के विकास का एक और कारण स्थानीय तथा प्रान्तीय राजाओं द्वारा दिया गया संरक्षण तथा प्रोत्साहन था।
 
  
सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में ये धाराएँ जारी रहीं। अकबर के काल तक उत्तरी भारत में [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के अलावा स्थानीय भाषा (हिंदवी) में काग़ज़ात को रखना बन्द ही कर दिया गया। इसके बावजूद सत्रहवीं शताब्दी में दक्कन के राज्यों के पतन तक उनमें स्थानीय भाषाओं में दस्तावेज़ों को रखने की परम्परा जारी रही।
 
 
फ़ारसी गद्य तथा पद्य अकबर के शासनकाल में अपने शिखर पर थे। उस काल के महान् लेखक और विद्वान तथा इतिहासकार अबुलफ़ज़ल ने गद्य की ऐसी शैली प्रचलित की जिसका कई पीढ़ियों ने अनुसरण किया। उस काल का प्रमुख कवि फ़ैज़ी अबुलफ़ज़ल का भाई था और उसने अकबर के अनुवाद विभाग में बड़ी सहायता की। उसके निरीक्षण में महाभारत का अनुवाद भी किया गया। उस काल के फ़ारसी के दो अन्य प्रमुख कवि उत्बी तथा नज़ोरी थे। इनका जन्म ईरान में हुआ था। पर ये उन विद्वानों और कवियों में थे जो बड़ी संख्या में उस काल में ईरान स भारत आए थे और जिन्होंने मुग़ल दरबार को इस्लामी जगत का एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र बना दिया था। फ़ारसी साहित्य के विकास में हिन्दुओं ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस काल में साहित्यिक तथा ऐतिहासिक कृतियों के अलावा फ़ारसी भाषा के कई प्रसिद्ध विश्वकोष भी तैयार किए गए।
 
 
इस काल में यद्यपि [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] की कोई मूल अथवा महत्वपूर्ण कृति की रचना नहीं की गई, इस भाषा में रचित कृतियों की संख्या काफ़ी बड़ी थी। पहले की तरह, दक्षिण तथा पूर्वी भारत में अधिकतर कृतियाँ स्थानीय राजाओं के संरक्षण में रची गई पर कुछ कृतियाँ उन ब्रह्मणों की थी जो सम्राटों के अनुवाद विभाग में नियुक्त थे।
 
 
इस काल में क्षेत्रीय भाषाओं में परिपक्वता आई तथा उत्कृष्ट संगीतमय काव्य की रचना हुई। [[बंगाली भाषा|बंगाली]], [[उड़िया भाषा|उड़िया]], [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]], [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] तथा [[गुजराती भाषा|गुजराती भाषाओं]] के काव्य में इस काल में [[राधा]]-[[कृष्ण]] तथा [[कृष्ण]] और गोपीयों की लीला तथा भागवत् की कहानियों का काफ़ी प्रयोग किया गया। राम पर आधारित कई भक्ति गीतों की रचना की गई तथा [[रामायण]] और [[महाभारत]] का क्षेत्रीय भाषाओं, विशेषकर उनमें जिनमें इनका अनुवाद पहले नहीं हुआ था, में अनुवाद किया गया। कुछ फ़ारसी कृतियों का भी अनुवाद किया गया। इस कार्य में हिन्दू तथा मुसलमान, दोनों ने योगदान दिया। अलाओल ने बंगला में अपनी रचनाएँ भी कीं और साथ में मुसलमान सूफ़ी सन्त द्वारा रचित हिन्दी काव्य 'पद्मावत' का अनुवाद भी किया। इस काव्य में [[मलिक मुहम्मद जायसी]] ने अलाउद्दीन ख़लजी के [[चित्तौड़]] अभियान को आधार बना कर आत्मा तथा परमात्मा के सम्बन्ध में सूफ़ी विचारों, और माया के बारे में हिन्दू शास्त्रों के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।
 
 
मध्य युग में मुग़ल सम्राटों तथा हिन्दू राजाओं ने आगरा तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में बोले जाने वाली भाषा ब्रज को भी प्रेत्साहन प्रदान किया। अकबर के काल से मुग़ल राजदरबार में हिन्दू कवि भी रहने लगे। एक प्रमुख मुग़ल सरदार अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ानां ने अपने भक्तिकाव्य में मानवीय सम्बन्धों के बार में फ़ारसी विचारों का भी समन्वय किया। इस प्रकार फ़ारसी तथा हिन्दी की साहित्यिक परम्पराएँ एक-दूसरे से प्रभावित हुईं। इस काल के सबसे प्रमुख हिन्दी कवि [[तुलसीदास]] थे। जिन्होंने [[उत्तर प्रदेश]] के पूर्वी क्षेत्रों में बोले जाने वाली अवधी भाषा में एक महाकाव्य की रचना की जिसके नायक [[राम]] थे। उन्होंने एक ऐसी जाति व्यवस्था का अनुमोदन किया जिसमें जाति, जन्म के आधार पर नहीं, वरन् मानव के व्यक्तिगत गुणों पर आधारित थी। तुलसीदास वास्तव में मानवतावादी कवि थे। जिन्होंने पारिवारिक मूल्यों को महत्व दिया और यह बताया कि मुक्ति का मार्ग हर व्यक्ति के लिए सम्भव है और यह मार्ग राम के प्रति पूर्ण भक्ति है।
 
 
दक्षिण भारत में [[मलयालम भाषा|मलयालम]] में भी साहित्यिक परम्परा आरम्भ हुई। [[एकनाथ]] और [[तुकाराम]] ने [[मराठी भाषा]] को शिखर पर पहुँचा दिया। मराठी भाषा की महत्ता बताते हुए एकनाथ कहते हैं-
 
 
<blockquote>"यदि संस्कृत ईश्वर की देन है तो क्या प्राकृत चोर तथा उच्चकों ने दी है। यह बातें मात्र घमंड और भ्रम पर आधारित हैं। ईश्वर किसी भी भाषा का पक्षपाती नहीं। इसके लिए संस्कृत तथा प्राकृत एकसमान हैं। मेरी भाषा मराठी के माध्यम से उच्च से उच्च विचार व्यक्त किए जा सकते हैं और यह आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण है।"</blockquote>
 
 
इस उक्ति में क्षेत्रीय भाषाओं के रचनाकारों का गर्व स्पष्ट है तथा इसमें इन भाषाओं में लिखने वालों का आत्मविश्वास तथा उनका गर्व भी परिलक्षित होता है। सिक्ख गुरुओं की रचनाओं ने [[पंजाबी भाषा]] में नये प्राण फूँक दिए।
 
==संगीत==
 
एक अन्य सांस्कृतिक क्षेत्र जिसमें हिन्दू तथा मुसलमानों ने मिलकर काम किया वह संगीत का था। अकबर ने [[ग्वालियर]] के [[तानसेन]] को संरक्षण दिया जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कई रागों की रचना की। जहाँगीर तथा शाहजहाँ और उनके कई मुग़ल सरदारों ने इस परम्परा को जारी रखा। कट्टर औरंगजेब ने [[संगीत]] को गाड़ने के लिए जो कुछ कहा था उसके बारे में कई कहानियाँ हैं। आधुनिक अनुसंधान से पता चलता है कि औरंगजेब ने गायकों को अपने राजदरबार से बहिष्कृत कर दिया था। लेकिन वाद्य संगीत पर कोई रोक नहीं लगाई थी। यहाँ तक की औरंगजेब स्वयं एक कुशल [[वीणा]] वादक था। औरंगजेब ने हरम की रानियों तथा उसके कई सरदारों ने भी सभी प्रकार के संगीत को बढ़ावा दिया। इसीलिए औरंगजेब के शासनकाल में भारतीय शास्त्रीय संगीत पर बड़ी संख्या में पुस्तकों की रचना की गई। संगीत के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण विकास अठारहवीं शताब्दी में मोहम्मद शाह (1720-48) के शासनकाल में हुआ।
 
==धार्मिक विचार तथा विश्वास और एकता की समस्याएँ==
 
सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन का ज़ोर रहा। इसके अलावा पंजाब में [[सिक्ख धर्म|सिक्ख]] तथा महाराष्ट्र में महाराष्ट्र धर्म आंदोलन भी आरम्भ हुए। सिक्ख धर्म की नींव नानक की वाणी से पड़ी। लेकिन इसके विकास में गुरुओं का बहुत महत्व रहा। प्रथम चार गुरुओं ने ध्यान तथा विद्वत्ता की परम्परा जारी रखी। पाँचवें गुरु, गुरु अर्जुन देव ने गुरुओं के धर्मग्रन्थ आदि ग्रन्थ अथवा ग्रन्थ साहिब का संकलन किया। इस बात पर ज़ोर देने के लिए कि गुरु आध्यात्मिक तथा सांसारिक दोनों क्षेत्रों में प्रमुख है, उन्होंने शान-ओ-शौकत से रहना शुरू किया। उन्होंने अमृतसर में बड़े-बड़े भवनों का निर्माण किया, क़ीमती वस्त्र पहनने शुरू किए तथा मध्य एशिया से अपने लिए घोड़े मंगवाए। उनके साथ-साथ घुड़सवार चलते थे। उन्होंने सिक्खों से उनकी आय का दस प्रतिशत भी दान के रूप में लेने की प्रथा आरम्भ की।
 
अकबर सिक्ख गुरुओं से बहुत प्रभावित था और कहा जाता है कि वह अमृतसर भी गया था। लेकिन जहाँगीर द्वारा गुरु अर्जुन देव को बंदी बनाये जाने और उनकी मृत्यु के बाद सिक्ख और मुग़लों में संघर्ष आरम्भ हो गया। जहाँगीर ने गुरु अर्जुन देव पर विद्रोही राजकुमार ख़ुसरो को पैसों तथा प्रार्थनाओं से सहायता करने का आरोप लगाया। उसने गुरु अर्जुन देव के उत्तराधिकारी गुरु हरगोविन्द को भी थोड़े समय तक बंदी बनाकर रखा लेकिन उन्हें जल्दी ही मुक्त कर दिया और बाद में जहाँगीर के साथ उनके सम्बन्ध सुधर गये। वे जहाँगीर के साथ उसकी मृत्यु के तुरन्त पहले कश्मीर भी गये। लेकिन शिकार के एक मामले को लेकर शाहजहाँ के साथ उनका मतभेद हो गया। इस समय तक गुरु के अनुयायियों की संख्या काफ़ी बढ़ गई थी और पाइंदा ख़ाँ के नेतृत्व में कुछ पठान भी इसमें शामिल हो गये थे। गुरु की मुग़लों के साथ कई मुठभेड़े हुईं और अन्त में गुरु पंजाब की तराई में जाकर बस गये जहाँ वे शान्ति से रहे।
 
 
इस प्रकार हम देखते हैं कि इस काल में मुग़ल शासकों तथा सिक्खों के बीच संघर्ष का वातावरण नहीं था न ही हिन्दुओं को उनके धर्म के लिए पीड़ित किया जा रहा था। अतः ऐसा कोई कारण नहीं था कि जिससे सिक्ख या अन्य कोई दल हिन्दुओं का नेता बनकर मुसलमान अत्याचार के विदोध में झंडा उठाता। सिक्ख गुरु और मुग़ल शासकों के बीच की झड़पें धार्मिक नहीं बल्कि व्यक्तिगत तथा राजनीतिक कारणों से हुईं। शाहजहाँ ने यद्यपि अपने शासनकाल के आरम्भ में कट्टरता का रुख अपनाया तथा नये मन्दिरों को तुड़वाया पर इसके बावजूद वह अपने दृष्टिकोण में संकीर्ण नहीं था। बाद में उस पर उसके पुत्र दारा का भी उस पर प्रभाव पड़ा। दारा शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र था और वह स्वभाव से ही विद्वान तथा सूफ़ी था। जिसकी धार्मिक नेताओं से शास्त्रार्थ करने में बड़ी दिलचस्पी थी। काशी के ब्रह्मणों की सहायता से उसने गीता का फ़ारसी में अनुवाद किया लेकिन उसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य वेदों का संकलन था। जिसकी भूमिका में उसने वेदों को काल की दृष्टि से ईश्वरीय कृति माना और उसे क़ुरान के समान बताया। इस प्रकार उसने इस बात पर ज़ोर दिया कि इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में मूलभूत अन्तर नहीं है।
 
 
गुजरात के एक अन्य कवि दादू ने जातीय भेदभाव से मुक्त निपख नामक एक धार्मिक आंदोलन को शुरू किया। उन्होंने अपने को हिन्दू या मुसलमान बताने से इन्कार किया और लोगों को दोनों के धार्मिक ग्रन्थों से ऊपर उठने के लिए कहा। उन्होंने इस बात की घोंषणा की कि ब्रह्म अथवा सर्वोच्च सत्य को विभाजित नहीं किया जा सकता।
 
 
इसी तरह की सहिष्णुता से पूर्ण धार्मिक धारा महाराष्ट्र में पंढरपुर के अनन्य भक्त तुकाराम की कृतियों में देखी जा सकती है। पंढरपुर महाराष्ट्र धर्म का केन्द्र बन गया था और वहाँ विष्णु के प्रतिरूप विठोवा की पूजा अत्यन्त लोकप्रिय हो गई थी। तुकाराम जो स्वयं को एक शूद्र बताते थे भगवान की प्रतिमा की पूजा अपने हाथों से किया करते थे।
 
 
यह आशा नहीं की जा सकती थी कि इस तरह के विश्वास तथा कार्यों को हिन्दू और मुसलमानों के कट्टर तत्व आसानी से स्वीकार कर लेंगे और अपनी शक्ति प्रभाव का त्याग कर देंगे जिसका वे इतने दिनों से लाभ उठाते चले आ रहे थे। कट्टर हिन्दुओं की भावनाओं को बंगाल के नवद्वीप (नदिया) के रघुनन्दन ने वाणी दी। रघुनन्दन मध्य युग के धर्मशास्त्रों के सबसे प्रभावशाली लेखक माने जाते हैं। उन्होंने ब्रह्मणों के विशेषाधिकार पर ज़ोर दिया और इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि धर्मशास्त्रों को पढ़ना अथवा उनका प्रसार करना केवल ब्राह्मणों का अधिकार है। उनके अनुसार कलियुग में केवल दो वर्ण ब्राह्मण और शूद्र रह गये थे क्योंकि सच्चे क्षत्रियों का बहुत पहले ही लोप हो गया था और वैश्य और अन्यों ने अपने कर्तव्य का निर्वाह न कर अपनी जाति खो दी थी। महाराष्ट्र के रामानन्द ने भी ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों का समर्थन किया। मुसलमानों में यद्यपि तौहीद की धारा जारी रही तथा कई प्रमुख सूफ़ी सन्तों ने इसका समर्थन किया तथापि कट्टर उलमाओं के एक छोटे दल ने अकबर की सहिष्णुता की नीति की कड़ी आलोचना की। उस समय के सबसे प्रसिद्ध कट्टर मुसलमान शेख़ अहमद सरहिंदी माने जाते हैं। ये सूफ़ियों के कट्टर नक्शबंदी दल, जो अकबर के शासनकाल में भारत में आरम्भ हुआ था, उसके समर्थक थे। शेख़ अहमद सरहिंदी ने तौहीद तथा ईश्वर के एकात्म को ग़ैर-इस्लामी बताते हुए इसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने ऐसे रीति रिवाजों और विश्वासों का भी विरोध किया जो हिन्दुत्व से प्रभावित थे। इनमें ध्यान लगाना, सन्तों के मज़ारों की पूजा करना तथा धार्मिक सभा में संगीत शामिल था। राज्य के इस्लामी स्वरूप पर ज़ोर देते हुए इन्होंने जज़िया को फिर से लगाने पर ज़ोर दिया और इस बात की सिफ़ारिश की क हिन्दुओं के प्रति कड़ा रुख़ अपनाया जाए और उन्हें मुसलमानों के साथ कम से कम मिलने दिया जाए। अपनी योजना के कार्यान्वयन के लिए इन्होंने कई केन्द्रों को शुरू किया तथा अपने पक्ष में लाने के लिए सम्राट तथा कई सरदारों को चिट्ठयाँ लिखीं।
 
 
इन सब के बावजूद शेख़ अहमद का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। जहाँगीर ने इन्हें अपने को मुहम्मद साहब से भी बड़ा बताने के लिए बन्दी बना लिया और अपनी बात वापस लेने पर ही रिहा किया। औरंगजेब ने भी इनके पुत्र तथा उत्तराधिकारी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
 
 
इसके साथ हम देखते हैं कि कट्टर विचारकों तथा प्रचारकों का प्रभाव बड़ा सीमित था और इनसे बहुत कम लोग प्रभावित थे। ऐसे लोगों की आशा यही रहती थी कि उन्हें धनी एवं समाज और राज्य में प्रतिष्ठित लोगों का समर्थन प्राप्त हो। दूसरी ओर सहिष्णुता के समर्थक विचारकों से आम जनता प्रभावित थी। भारतीय इतिहास में कट्टरता तथा सहिष्णुता के प्रभाव को भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। यह एक ओर विशेषाधिकार प्राप्त शक्तिशाली लोगों तथा दूसरी ओर मानवतावादी विचारों से प्रभावित आम जनता के बीच संघर्ष का एक रूप था।
 
 
कट्टर तथा संकीर्ण तत्वों के प्रभाव तथा उनके द्वारा प्रतिपादित संकीर्ण विचारों से दो प्रमुख धर्मों हिन्दू तथा इस्लाम के बीच समन्वय और देश की सांस्कृतिक एकता में बाधा पहुँची। औरंगजेब के शासनकाल में इन दोनों तत्वों के बीच का संघर्ष उभरकर सामने आया।
 
  
 
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Revision as of 03:45, 18 August 2011

mugaloan ne bhavy mahaloan, qiloan, dvaroan, masjidoan, bavaliyoan adi ka nirman kiya. unhoanne bahate pani tatha favvaroan se susajjit kee bag lagavaye. vastav mean mahaloan tatha any vilas-bhavanoan mean bahate pani ka upayog mugal ki visheshata thi. babar svayan bagoan ka bahut shaukin tha aur usane agara tatha lahaur ke nazadik kee bag bhi lagavae. jaise kashmir ka nishat bag, lahaur ka shalimar bag tatha panjab taraee mean pianjor bag, aj bhi dekhe ja sakate haian.

sherashah ne vastukala ko nayi disha di. sasaram (bihar) mean usaka prasiddh maqabara tatha dilli ke purane qile mean usaki masjid vastukala ke ashcharyajanak namoone haian. ye mugal-poorvakal ke vastukala ke charmoantkarsh tatha nee shaili ke pararanmbhik namoone haian.

akabar pahala mugal samrat tha jisake pas b de paiman par nirman karavane ke lie samay aur sadhan the. usane kee qiloan ka nirman kiya jisamean sabase prasiddh agare ka qila hai. lal patthar se bane is kile mean kee bhavy dvar haian. qila nirman ka charmoantkarsh shahajahaan dvara nirmit dilli ka lal qila hai.

1572 mean akabar ne agara se 36 kilomitar door fatehapur sikari mean qilenuma mahal ka nirman arambh kiya. yah ath varshaan mean poora hua. paha di par base is mahal mean ek b di kritrim jhil bhi thi. isake alava isamean gujarat tatha bangal shaili mean bane kee bhavan the. inamean gahari guphaean, jharokhe tatha chhatariyaan thi. havakhori ke lie banae ge panchamahal ki sapat chhat ko sahara dene ke lie vibhinn stambhoan, jo vibhinn prakar ke mandiroan ke nirman mean prayog kie jate the, ka istemal kiya gaya tha. rajapooti patni ya patniyoan ke lie bane mahal sabase adhik gujarat shaili mean haian. is tarah ke bhavanoan ka nirman agara ke qile mean bhi hua tha. yadyapi inamean se kuchh hi bache haian. akabar agara aur phatehapur sikari donoan jagahoan ke kam mean vyaktigat ruchi leta tha. divaroan tatha chhatoan ki shobha badhane ke lie istemal kie ge chamakile nile pattharoan mean eerani ya madhy eshiya ka prabhav dekha ja sakata hai. fatehapur sikari ka sabase prabhavashali vahaan ki masjid tatha buland daravaza hai jo akabar ne apani gujarat vijay ke smarak ke roop me banavaya tha. daravaza adhe gumbad ki shaili mean bana hua hai. gumbar ka adha hissa daravaze ke bahar vale hisse ke oopar hai tatha usake pichhe chhote-chhote daravaze haian. yah shaili eeran se li gee thi aur bad ke mugal bhavanoan mean am roop se prayog ki jane lagi.

mugal samrajy ke vistar ke sath mugal vastukala bhi apane shikhar par pahuanch gee. jahaangir ke shasanakal ke ant tak aise bhavanoan ka nirman arambh ho gaya tha jo poori tarah sangamaramar ke bane the aur jinaki divaroan par qimati pattharoan ki naqqashi ki gee thi. yah shaili shahajahaan ke samay aur bhi lokapriy ho gayi. shahajahaan ne ise tajamahal, jo nirman kala ka ratn mana jata hai, mean b de paimane par prayog kiya. tajamahal mean mugaloan dvara vikasit vastukala ki sabhi shailiyoan ka sundar samanvay hai. akabar ke shasanakal ke prarambh mean dilli mean nirmit humayooan ka makabara, jisamean sangamaramar ka vishal gumbad hai, taj ka poorvagami mana ja sakata hai. is bhavan ki ek doosari visheshata do gumbadoan ka prayog hai. isamean ek b de gumbad ke andar ek chhota gumbad bhi bana hua hai. taj ki pramukh visheshata usaka vishal gumbad tatha mukhy bhavan ke chabootare ke kinaroan par kh di char minarean haian. isamean sajavat ka kam bahut kam hai lekin sangamaramar ke sundar jharokhoan, j de hue qimati pattharoan tatha chhatariyoan se isaki sundarata bahut badh gayi hai. isake alava isake charoan taraf lagae ge, susajjit bag se yah aur prabhavashali dikhata hai.

shahajahaan ke shasanakal mean masjid nirman kala bhi apane shikhar par thi. do sabase sundar masjidean haian agara ke qile ki moti masjid jo taj ki tarah poori sangamaramar ki bani hai tatha dilli ki jata masjid jo lal patthar ki hai. jama masjid ki visheshataean usaka vishal dvar, ooanchi minarean tatha gumbad haian.

yadyapi mitavyayi aurangajeb ne bahut bhavanoan ka nirman nahian kiya tathapi hindoo, turk tatha eerani shailiyoan ke samanvay par adharit mugal vastukala ki parampara athaharavian tatha unnasavian shatabdi ke arambh tak bina rok jari rahi. mugal parampara ne kee prantiy sthaniy rajaoan ke qiloan tatha mahaloan ki vastukala ko prabhavit kiya. amritasar mean sikhoan ka svarn mandir jo is kal mean kee bar, vah bhi gumbad tatha meharab ke siddhaant par nirmit hua tha aur isase mugal vastukala ki parampara ki kee visheshataean prayog mean laee geean.

chitrakala

chitrakala ke kshetr mean mugaloan ka vishisht yogadan tha. unhoanne rajadarabar, shikar tatha yuddh ke drishyoan se sambandhit ne vishayoan ko arambh kiya tatha ne rangoan aur akaroan ki shurooat ki. unhoanne chitrakala ki aisi jivant parampara ki nianv dali jo mugal samrajy ke patan ke bad bhi desh ke vibhinn bhagoan mean jivit rahi. is shaili ki samriddhi ka ek mukhy karan yah bhi tha ki bharat mean chitrakala ki bahut purani parampara thi. yadyapi barahavian shatabdi ke pahale ke ta dapatr upalabdh nahian haian, jinase chitrakala ki shaili ka pata chal sake, ajanta ke chitr is samriddh parampara ke sarthak praman haian. lagata hai ki athavian shatabdi ke bad chitrakala ki parampara ka hras hua, par terahavian shatabdi ke bad ki ta dapatr ki paandulipiyoan tatha chitrit jain paandulipiyoan se siddh ho jata hai ki yah parampara mari nahian thi. pandrahavian shatabdi mean jainiyoan ke alava malava tatha gujarat jaise kshetriy rajyoan mean bhi chitrakaroan ko sanrakshan pradan kiya jata tha. lekin sahi arthoan mean is parampara ka punarutthan akabar ke kal mean hi hua. jab humayooan eeran ke shah darabar mean tha, usane do kushal chitrakaroan ko sanrakshan diya aur bad mean ye donoan usake sath bharat ae. inhian ke netritv mean akabar ke kal mean chitrakala ko ek rajasi 'karakhane' ke roop mean sangathit kiya gaya. desh ke vibhinn kshetroan se b di sankhya mean chitrakaroan ko amantrit kiya gaya. inamean se kee nimn jatiyoan ke the. arambh se hi hindoo tatha musalaman sath-sath kary karate the. isi prakar akabar ke rajadarabar ke do prasiddh chitrakar jasavant tatha dasavan the. chitrakala ke is kendr ka vikas b di shighrata se hua aur isane b di prasiddhi hasil kar li. farasi kahaniyoan ko chitrit karane ke bad inhean mahabharat, akabar nama tatha any mahatvapoorn granthoan ki chitrakari ka kam sauanpa gaya. is prakar bharatiy vishayoan tatha bharatiy drishyoan par chitrakari karane ka rivaj lokapriy hone laga aur isase chitrakala par eerani prabhav ko kam karane mean sahayata mili. bharat ke rangoan jaise firoji rang tatha bharatiy lal rang ka istemal hone laga. sabase mukhy bat yah huee ki eerani shaili ke sapat prabhav ka sthan bharatiy shaili ke vrittakar prabhav ne liya aur isase chitroan mean trivinitiy prabhav a gaya.

mugal chitrakala jahaangir ke kal mean apane shikhar par pahuanch gee. jahaangir is kala ka b da kushal parakhi tha. mugal shaili mean manushyoan ka chitr banate samay ek hi chitr mean vibhinn chitrakaroan dvara mukh, sharir tatha pairoan ko chitrit karane ka rivaj tha. jahaangir ka dava tha ki vah kisi chitr mean vibhinn chitrakaroan ke alag-alag yogadan ko pahachan sakata tha.

shikar, yuddh aur rajadarabar ke drishyoan ko chitrit karane ke alava jahaangir ke kal mean manushyoan tatha janavaroan ke chitr banane ki kala mean vishesh pragati huee. is kshetr mean mansoor ka bahut nam tha. manushyoan ke chitr banane ka bhi kafi prachalan tha.

akabar ke kal mean purtagali padariyoan dvara rajadarabar mean yooropiy chitrakala bhi arambh huee. usase prabhavit hokar vah vishesh shaili apanaee gee jisase chitroan mean qarib tatha doori ka spasht bodh hota tha. yah parampara shahajahaan ke kal mean to jari rahi par aurangajeb ki is kala mean dilachaspi n hone ke karan kalakar desh mean door-door tak bikhar ge. is prakriya se rajasthan tatha panjab ki paha diyoan mean is kala ke vikas mean sahayata mili.

rajasthan shaili mean jain athava pashchim bharat ki shaili ke pramukh vishayoan, aur mugal shaili ke akar ka samanvay tha. is prakar is shaili mean shikar tatha rajadarabar ke drishyoan ke alava radha aur krishna ki lili jaise dharmik vishayoan ko bhi lekar chitr banae ge. inake alava barahamasa arthat varsh ke vibhinn mausam tatha vibhinn ragoan par adharit chitr bhi banae ge. paha di shaili ne is parampara ko jari rakha.



panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

bahari k diyaan

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