वायलिन: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
|||
Line 6: | Line 6: | ||
वायलिन को सबसे पहले विशेष रूप से इसके जन्मस्थान [[इटली]] में इसके गायन स्वर के लिए मान्यता मिली, जहाँ प्रारंभिक निर्माताओं, गास्पारो द सालो, आंद्रिआ ऑमॉती और जोवानी पाओलो माग्गिनी ने 16वीं सदी के अंत से पहले इसके औसत अनुपातों को निर्धारित किया। अपने इतिहास के दौरान वायलिन में कई सुधार हुए, जिन्होंने इसके विकासमान [[संगीत]] उपयोग के लिये इसे क्रमशः अधिक उपयुक्त बनाया। सामान्यतः प्रारंभिक वायलिन उदर और पृष्ठभाग में ज़्यादा गहरी चापित थी; अपेक्षाकृत आधुनिक वायलिन, एंतोनियो स्त्रादिवारी (1644-1737) के अभिनव परिवर्तनों के बाद अधिक उथली थी, जो ज़्यादा सशक्त स्वर निकालती थी। 19वीं सदी में बड़े प्रेक्षागृहों और वायलिन मर्मज्ञों के आगमन से वायलिन की संरचना में अंतिम परिवर्तन किए गए। मेरू ऊँचा किया गया, ध्वनि-स्तंभ एवं ध्वनि-शलाका मोटी की गई तथा शरीर ज़्यादा सपाट हो गया। गर्दन को पीछे मोड़ा गया। ताकि मेरू पर तारों का और अधिक दबाव हो। परिणामस्वरूप, 18वीं सदी के वायलिन को कोमल और अंतरंग स्वर की जगह ज़्यादा शक्तिशाली एवं स्पष्ट स्वर मिला। | वायलिन को सबसे पहले विशेष रूप से इसके जन्मस्थान [[इटली]] में इसके गायन स्वर के लिए मान्यता मिली, जहाँ प्रारंभिक निर्माताओं, गास्पारो द सालो, आंद्रिआ ऑमॉती और जोवानी पाओलो माग्गिनी ने 16वीं सदी के अंत से पहले इसके औसत अनुपातों को निर्धारित किया। अपने इतिहास के दौरान वायलिन में कई सुधार हुए, जिन्होंने इसके विकासमान [[संगीत]] उपयोग के लिये इसे क्रमशः अधिक उपयुक्त बनाया। सामान्यतः प्रारंभिक वायलिन उदर और पृष्ठभाग में ज़्यादा गहरी चापित थी; अपेक्षाकृत आधुनिक वायलिन, एंतोनियो स्त्रादिवारी (1644-1737) के अभिनव परिवर्तनों के बाद अधिक उथली थी, जो ज़्यादा सशक्त स्वर निकालती थी। 19वीं सदी में बड़े प्रेक्षागृहों और वायलिन मर्मज्ञों के आगमन से वायलिन की संरचना में अंतिम परिवर्तन किए गए। मेरू ऊँचा किया गया, ध्वनि-स्तंभ एवं ध्वनि-शलाका मोटी की गई तथा शरीर ज़्यादा सपाट हो गया। गर्दन को पीछे मोड़ा गया। ताकि मेरू पर तारों का और अधिक दबाव हो। परिणामस्वरूप, 18वीं सदी के वायलिन को कोमल और अंतरंग स्वर की जगह ज़्यादा शक्तिशाली एवं स्पष्ट स्वर मिला। | ||
==वायलिन का आकार== | ==वायलिन का आकार== | ||
इसके तार समस्वरण मेखों एवं आखिरी छोर से बंधे होते है, जो एक मेरू के ऊपर से होकर गुज़रते हैं। तारों के दबाब से मेरू अपनी जगह स्थिर रहता है। मेरू तारों के कंपन को वायलिन के उदर या ध्वनिपटल तक पहुँचाता है, जो देवदार का बना होता है एवं [[ध्वनि]] को ऊँचा करता है। वाद्य यंत्र के भीतर, मेरू के नीचे तथा वायलिन उदर एवं मेपल लकड़ी से बने पृष्ठ भाग के बीच में स्वरस्तंभ होता है, जो देवदार की पतली लकड़ी का होता है और तारों के कंपन को पृष्ठभाग को संप्रेषित करता है, जिसके कारण विशिष्ट वायलिन [[स्वर (संगीत)|स्वर]] निकलता है। उदर को नीचे से मंद्रशलाका सहारा देती है, लकड़ी की यह संकरी शलाका लंबवत गुज़रती हुई पतली होकर उदर में समाहित हो जाती है। यह वाद्य के अनुनाद में भी योगदान देती है। पार्श्व दीवारें या पट्टियाँ देवदार की परत वाले मेपल से निर्मित होती हैं। | इसके तार समस्वरण मेखों एवं आखिरी छोर से बंधे होते है, जो एक मेरू के ऊपर से होकर गुज़रते हैं। तारों के दबाब से मेरू अपनी जगह स्थिर रहता है। मेरू तारों के कंपन को वायलिन के उदर या ध्वनिपटल तक पहुँचाता है, जो [[देवदार]] का बना होता है एवं [[ध्वनि]] को ऊँचा करता है। वाद्य यंत्र के भीतर, मेरू के नीचे तथा वायलिन उदर एवं मेपल लकड़ी से बने पृष्ठ भाग के बीच में स्वरस्तंभ होता है, जो देवदार की पतली लकड़ी का होता है और तारों के कंपन को पृष्ठभाग को संप्रेषित करता है, जिसके कारण विशिष्ट वायलिन [[स्वर (संगीत)|स्वर]] निकलता है। उदर को नीचे से मंद्रशलाका सहारा देती है, लकड़ी की यह संकरी शलाका लंबवत गुज़रती हुई पतली होकर उदर में समाहित हो जाती है। यह वाद्य के अनुनाद में भी योगदान देती है। पार्श्व दीवारें या पट्टियाँ देवदार की परत वाले मेपल से निर्मित होती हैं। | ||
==वायलिन का उपयोग== | ==वायलिन का उपयोग== | ||
प्रारंभिक वायलिनों को लोकप्रिय संगीत और नृत्य संगीत में इस्तेमाल किया जाता था। 17वीं सदी के दौरान इसने कक्ष संगीत के बुनियादी तार वाद्य के रूप में वॉयल का स्थान लिया। इतालवी संगीतकार मोंतेवेर्दी ने अपने गीति नाट्य (ऑपेरा) ऑर्फ़ियो (पहली बार 1607 में प्रदर्शित) के वाद्य-वृंद में वायलिन को शामिल किया गया था। [[फ़्रांस]] में राजसी वाद्य-वृंद, ले 24 वायलंस दु रोइ, 1626 में आयोजित किया गया। प्रवीण वायलिन वादक आरकेंजलो कॉरेली पहले संगीतकारों में से थे, जिन्होंने वायलिन के लिए नया संगीत रचा, विवाल्डी, जे.एस. बाख़ तथा वायलिन वादक जूज़ादे तार्तीनी ने भी यही किया। यही 18वीं सदी से अधिकतर प्रमुख संगीतकारों ने वायलिन के लिए एकल संगीत रचा, इसमें मोज़ार्ट, बीटोवन, शुमैन, ब्राह्म्स, एडवर्ड ग्रेग, पॉल हाइंडमिथ, आरनॉल्ड शोएनबर्ग और एलबन बर्ग शामिल हैं। फ्रांसेस्कों जेमिनियानी, निकोलो पागानिनि, जोसेफ़ योकिम, फ़्रिट्ज़ क्रिस्लर, डेविड ओइस्त्रेख़, यहूदी मेनुहिन और आइज़ेक स्टर्न जैसे मर्मज्ञों ने उत्कृष्ट वायलिन संगीत की रचना को प्रेरित किया। वायलिन को मध्य-पूर्व और [[दक्षिण भारत]] की संगीत कला में समायोजित किया गया तथा फ़िड्ल की तरह यह कई देशों के लोकसंगीत में बजाया जाता है। 16वीं-18वीं सदी के दौरान प्रचलित टेनॉर वायलिन, वॉयला और चेलो के बीच के आकार का था। इसका समस्वरण ‘म-सा-प-रे’ था। टेनॉर वायलिन को कभी-कभी वॉयला भी कहा जाता है। | प्रारंभिक वायलिनों को लोकप्रिय संगीत और नृत्य संगीत में इस्तेमाल किया जाता था। 17वीं सदी के दौरान इसने कक्ष संगीत के बुनियादी तार वाद्य के रूप में वॉयल का स्थान लिया। इतालवी संगीतकार मोंतेवेर्दी ने अपने गीति नाट्य (ऑपेरा) ऑर्फ़ियो (पहली बार 1607 में प्रदर्शित) के वाद्य-वृंद में वायलिन को शामिल किया गया था। [[फ़्रांस]] में राजसी वाद्य-वृंद, ले 24 वायलंस दु रोइ, 1626 में आयोजित किया गया। प्रवीण वायलिन वादक आरकेंजलो कॉरेली पहले संगीतकारों में से थे, जिन्होंने वायलिन के लिए नया संगीत रचा, विवाल्डी, जे.एस. बाख़ तथा वायलिन वादक जूज़ादे तार्तीनी ने भी यही किया। यही 18वीं सदी से अधिकतर प्रमुख संगीतकारों ने वायलिन के लिए एकल संगीत रचा, इसमें मोज़ार्ट, बीटोवन, शुमैन, ब्राह्म्स, एडवर्ड ग्रेग, पॉल हाइंडमिथ, आरनॉल्ड शोएनबर्ग और एलबन बर्ग शामिल हैं। फ्रांसेस्कों जेमिनियानी, निकोलो पागानिनि, जोसेफ़ योकिम, फ़्रिट्ज़ क्रिस्लर, डेविड ओइस्त्रेख़, यहूदी मेनुहिन और आइज़ेक स्टर्न जैसे मर्मज्ञों ने उत्कृष्ट वायलिन संगीत की रचना को प्रेरित किया। वायलिन को मध्य-पूर्व और [[दक्षिण भारत]] की संगीत कला में समायोजित किया गया तथा फ़िड्ल की तरह यह कई देशों के लोकसंगीत में बजाया जाता है। 16वीं-18वीं सदी के दौरान प्रचलित टेनॉर वायलिन, वॉयला और चेलो के बीच के आकार का था। इसका समस्वरण ‘म-सा-प-रे’ था। टेनॉर वायलिन को कभी-कभी वॉयला भी कहा जाता है। |
Latest revision as of 10:22, 4 June 2012
चित्र:Icon-edit.gif | इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" |
thumb|250px|वायलिन वायलिन का उपनाम बेला है। वायलिन कमानयुक्त तार वाद्य है, जो पुनर्जागरण के दौरान पहले के कमानयुक्त वाद्यों, मध्यकालीन ‘फ़िडल’ है। वायलिन की 16वीं सदी की इतालवी प्रशाखा लीरा द ब्राचिओ और रिबेक से विकसित हुआ। वायलिन शायद सबसे प्रसिद्ध तथा विश्व में व्यापक रूप से फैला वाद्य यंत्र है। अपने पूर्ववर्तियों के समान, लेकिन अपने संबंधी वायॅल की तरह नहीं, वायलिन में पर्दाविहीन उंगलीपटल होता है।
वायलिन का इतिहास
वायलिन को सबसे पहले विशेष रूप से इसके जन्मस्थान इटली में इसके गायन स्वर के लिए मान्यता मिली, जहाँ प्रारंभिक निर्माताओं, गास्पारो द सालो, आंद्रिआ ऑमॉती और जोवानी पाओलो माग्गिनी ने 16वीं सदी के अंत से पहले इसके औसत अनुपातों को निर्धारित किया। अपने इतिहास के दौरान वायलिन में कई सुधार हुए, जिन्होंने इसके विकासमान संगीत उपयोग के लिये इसे क्रमशः अधिक उपयुक्त बनाया। सामान्यतः प्रारंभिक वायलिन उदर और पृष्ठभाग में ज़्यादा गहरी चापित थी; अपेक्षाकृत आधुनिक वायलिन, एंतोनियो स्त्रादिवारी (1644-1737) के अभिनव परिवर्तनों के बाद अधिक उथली थी, जो ज़्यादा सशक्त स्वर निकालती थी। 19वीं सदी में बड़े प्रेक्षागृहों और वायलिन मर्मज्ञों के आगमन से वायलिन की संरचना में अंतिम परिवर्तन किए गए। मेरू ऊँचा किया गया, ध्वनि-स्तंभ एवं ध्वनि-शलाका मोटी की गई तथा शरीर ज़्यादा सपाट हो गया। गर्दन को पीछे मोड़ा गया। ताकि मेरू पर तारों का और अधिक दबाव हो। परिणामस्वरूप, 18वीं सदी के वायलिन को कोमल और अंतरंग स्वर की जगह ज़्यादा शक्तिशाली एवं स्पष्ट स्वर मिला।
वायलिन का आकार
इसके तार समस्वरण मेखों एवं आखिरी छोर से बंधे होते है, जो एक मेरू के ऊपर से होकर गुज़रते हैं। तारों के दबाब से मेरू अपनी जगह स्थिर रहता है। मेरू तारों के कंपन को वायलिन के उदर या ध्वनिपटल तक पहुँचाता है, जो देवदार का बना होता है एवं ध्वनि को ऊँचा करता है। वाद्य यंत्र के भीतर, मेरू के नीचे तथा वायलिन उदर एवं मेपल लकड़ी से बने पृष्ठ भाग के बीच में स्वरस्तंभ होता है, जो देवदार की पतली लकड़ी का होता है और तारों के कंपन को पृष्ठभाग को संप्रेषित करता है, जिसके कारण विशिष्ट वायलिन स्वर निकलता है। उदर को नीचे से मंद्रशलाका सहारा देती है, लकड़ी की यह संकरी शलाका लंबवत गुज़रती हुई पतली होकर उदर में समाहित हो जाती है। यह वाद्य के अनुनाद में भी योगदान देती है। पार्श्व दीवारें या पट्टियाँ देवदार की परत वाले मेपल से निर्मित होती हैं।
वायलिन का उपयोग
प्रारंभिक वायलिनों को लोकप्रिय संगीत और नृत्य संगीत में इस्तेमाल किया जाता था। 17वीं सदी के दौरान इसने कक्ष संगीत के बुनियादी तार वाद्य के रूप में वॉयल का स्थान लिया। इतालवी संगीतकार मोंतेवेर्दी ने अपने गीति नाट्य (ऑपेरा) ऑर्फ़ियो (पहली बार 1607 में प्रदर्शित) के वाद्य-वृंद में वायलिन को शामिल किया गया था। फ़्रांस में राजसी वाद्य-वृंद, ले 24 वायलंस दु रोइ, 1626 में आयोजित किया गया। प्रवीण वायलिन वादक आरकेंजलो कॉरेली पहले संगीतकारों में से थे, जिन्होंने वायलिन के लिए नया संगीत रचा, विवाल्डी, जे.एस. बाख़ तथा वायलिन वादक जूज़ादे तार्तीनी ने भी यही किया। यही 18वीं सदी से अधिकतर प्रमुख संगीतकारों ने वायलिन के लिए एकल संगीत रचा, इसमें मोज़ार्ट, बीटोवन, शुमैन, ब्राह्म्स, एडवर्ड ग्रेग, पॉल हाइंडमिथ, आरनॉल्ड शोएनबर्ग और एलबन बर्ग शामिल हैं। फ्रांसेस्कों जेमिनियानी, निकोलो पागानिनि, जोसेफ़ योकिम, फ़्रिट्ज़ क्रिस्लर, डेविड ओइस्त्रेख़, यहूदी मेनुहिन और आइज़ेक स्टर्न जैसे मर्मज्ञों ने उत्कृष्ट वायलिन संगीत की रचना को प्रेरित किया। वायलिन को मध्य-पूर्व और दक्षिण भारत की संगीत कला में समायोजित किया गया तथा फ़िड्ल की तरह यह कई देशों के लोकसंगीत में बजाया जाता है। 16वीं-18वीं सदी के दौरान प्रचलित टेनॉर वायलिन, वॉयला और चेलो के बीच के आकार का था। इसका समस्वरण ‘म-सा-प-रे’ था। टेनॉर वायलिन को कभी-कभी वॉयला भी कहा जाता है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख