आसाराम: Difference between revisions

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'''संत श्री आशाराम बापू''' अथवा '''आसाराम बापू''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Asaram Bapu'', जन्म: 17 अप्रॅल 1941 [[सिंध]]) एक भारतीय आत्मज्ञानी संत हैं, जो मानवमात्र में एक सच्चिदानन्द ईश्वर के अस्तित्व का उपदेश देते हैं। आशाराम बापू का वास्तविक नाम 'आसुमल सिरुमलानी' है।  
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==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
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====बाल्य अवस्था====
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==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://jeevanpathya.blogspot.in/2011/05/blog-post.html जीवन झांकी - संतश्री आसारामजी बापू]
*[http://jeevanpathya.blogspot.in/2011/05/blog-post.html जीवन झांकी - संतश्री आसारामजी बापू]
*[http://ashram.org/PujyaBapuji.aspx  Sant Shri Asharamji Ashram]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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Revision as of 09:57, 13 October 2012

आसाराम
पूरा नाम संत श्री आशाराम बापू
अन्य नाम आसुमल सिरुमलानी
जन्म 17 अप्रॅल 1941
जन्म भूमि सिंध, ब्रिटिश भारत
गुरु स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज
कर्म-क्षेत्र आध्यात्मिक गुरु
नागरिकता भारतीय
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संत श्री आशाराम बापू अथवा आसाराम बापू (अंग्रेज़ी: Asaram Bapu, जन्म: 17 अप्रॅल 1941 सिंध) एक भारतीय आत्मज्ञानी संत हैं, जो मानवमात्र में एक सच्चिदानन्द ईश्वर के अस्तित्व का उपदेश देते हैं। आशाराम बापू का वास्तविक नाम 'आसुमल सिरुमलानी' है।

जीवन परिचय

संत श्री आसारामजी महाराज का जन्म सिंध प्रान्त के नवाबशाह ज़िले में सिंधु नदी के तट पर बसे बेराणी गाँव में नगर सेठ श्री थाऊमलजी सिरुमलानी के घर 17 अप्रैल 1941 तदनुसार विक्रम संवत 1998 को चैत्र वदी षष्ठी के दिन हुआ था। इनकी पूजनीय माताजी का नाम महँगीबा है। उस समय नामकरण संस्कार के दौरान आपका नाम आसुमल रखा गया था।

बाल्य अवस्था

आशाराम का बाल्यकाल संघर्षों की एक लंबी कहानी हैं। विभाजन की विभिषिका को सहनकर भारत के प्रति अत्यधिक प्रेम होने के कारण आपका परिवार अपनी अथाह चल-अचल सम्पत्ति को छोड़कर यहाँ के अहमदाबाद शहर में 1947 में आ पहुँचा। अपना धन-वैभव सब कुछ छूट जाने के कारण वह परिवार आर्थिक विषमता के चक्रव्यूह में फँस गया लेकिन आजीविका के लिए किसी तरह से पिताश्री थाऊमलजी द्वारा लकड़ी और कोयले का व्यवसाय आरम्भ करने से आर्थिक परिस्थिति में सुधार होने लगा। तत्पश्चात् शक्कर का व्यवसाय भी आरम्भ हो गया।

शिक्षा

आशाराम बापू की प्रारम्भिक शिक्षा सिन्धी भाषा से आरम्भ हुई। तदनन्तर सात वर्ष की आयु में प्राथमिक शिक्षा के लिए आपको 'जयहिन्द हाईस्कूल', मणिनगर, (अहमदाबाद) में प्रवेश दिलवाया गया। अपनी विलक्षण स्मरणशक्ति के प्रभाव से आप शिक्षकों द्वारा सुनाई जाने वाली कविता, गीत या अन्य अध्याय तत्क्षण पूरी की पूरी हू-ब-हू सुना देते थे। विद्यालय में जब भी मध्यान्ह की विश्रान्ति होती, बालक आसुमल खेलने-कूदने या गप्पेबाजी में समय न गँवाकर एकांत में किसी वृक्ष के नीचे ईश्वर के ध्यान में बैठ जाते थे। चित्त की एकाग्रता, बुद्धि की तीव्रता, नम्रता, सहनशीलता आदि गुणों के कारण बालक का व्यक्तित्व पूरे विद्यालय में मोहक बन गया था। आप अपने पिता के लाड़ले संतान थे। अतः पाठशाला जाते समय पिताश्री आपकी जेब में पिश्ता, बादाम, काजू, अखरोट आदि भर देते थे जिसे आसुमल स्वयं भी खाते एवं प्राणिमात्र में आपका मित्रभाव होने से ये परिचित-अपरिचित सभी को भी खिलाते थे। पढ़ने में ये बड़े मेधावी थे तथा प्रतिवर्ष प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे, फ़िर भी इस सामान्य विद्या का आकर्षण आपको कभी नहीं रहा। लौकिक विद्या, योगविद्या और आत्मविद्या ये तीन विद्याएँ हैं, लेकिन आपका पूरा झुकाव योगविद्या पर ही रहा।

परिवार

माता-पिता के अतिरिक्त आशाराम बापू के परिवार में एक बड़े भाई तथा दो छोटी बहनें थीं। बालक आसुमल को माताजी की ओर से धर्म के संस्कार बचपन से ही दिये गये थे। माँ इन्हें ठाकुरजी की मूर्ति के सामने बिठा देतीं और कहतीं -“बेटा, भगवान की पूजा और ध्यान करो। इससे प्रसन्न हो कर वे तुम्हें प्रसाद देंगे।” वे ऐसा ही करते और माँ अवसर पाकर उनके सम्मुख चुपचाप मक्खन-मिश्री रख जातीं। बालक आसुमल जब आँखें खोलकर प्रसाद देखते तो प्रभु-प्रेम में पुलकित हो उठते थे।

विवाह

तरुणाई के प्रवेश के साथ ही घरवालों ने इनकी शादी करने की तैयारी की। वैरागी आसुमल सांसारिक बंधनों में नहीं फँसना चाहते थे इसलिए विवाह के आठ दिन पूर्व ही वे चुपके से घर छोड़ कर निकल पड़े। काफी खोजबीन के बाद घरवालों नें उन्हें भरूच के एक आश्रम में पा लिया। "चूँकि पूर्व में सगाई निश्चित हो चुकी है, अतः संबंध तोड़ना परिवार की प्रतिष्ठा पर आघात पहुँचाना होगा। अब हमारी इज्जत तुम्हारे हाथ में है।" सभी परिवारजनों के बार-बार इस आग्रह के वशीभूत होकर तथा तीव्रतम प्रारब्ध के कारण उनका विवाह हो गया, किन्तु आसुमल उस स्वर्णबंधन में रुके नहीं। अपनी सुशील एवं पवित्र धर्मपत्नी लक्ष्मीदेवी को समझाकर अपने परम लक्ष्य ‘आत्म-साक्षात्कार’ की प्राप्ति तक संयमी जीवन जीने का आदेश दिया। अपने पूज्य स्वामी के धार्मिक एवं वैराग्यपूर्ण विचारों से सहमत होकर लक्ष्मीदेवी ने भी तपोनिष्ठ एवं साधनामय जीवन व्यतीत करने का निश्चय कर लिया।

गृहत्याग एवं ईश्वर की खोज

विक्रम संवत 2020 की फाल्गुन सुदी 11 तदनुसार 23 फरवरी 1964 के पवित्र दिवस आप किसी भी मोह-ममता एवं अन्य विघ्न-बाधाओं की परवाह न करते हुए अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए घर छोड़कर चल पड़े। घूमते-घूमते आप केदारनाथ पहुँचे, जहाँ अभिषेक करवाने पर आपको पंडितों ने आशीर्वाद दिया कि ‘लक्षाधिपति भव।’ जिस माया को ठुकराकर आप ईश्वर की खोज में निकले, वहाँ भी मायाप्राप्ति का आशीर्वाद....! आपको यह आशीर्वाद रास न आया। अतः आपने पुनः अभिषेक करवा कर ईश्वरप्राप्ति का आशीर्वाद पाया एवं प्रार्थना की ‘भले माँगने पर भी दो समय का भोजन न मिले लेकिन हे ईश्वर! तेरे स्वरूप का मुझे ज्ञान मिले’ तथा ‘इस जीवन का बलिदान देकर भी अपने लक्ष्य की सिद्धि करके रहूँगा...!’ इस प्रकार का दृढ़ निश्चय करके वहाँ से आप भगवान श्रीकृष्ण की पवित्र लीलास्थली वृन्दावन पहुँच गये। होली के दिन यहाँ के दरिद्रनारायण में भंडारा कर कुछ दिन वहीं पर रुके और फिर उत्तराखंड की ओर निकल पड़े। गुफाओं, कन्दराओं, वनाच्छाति घाटियों, हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाओं एवं अनेक तीर्थों में घूमे। कंटकाकीर्ण मार्गों पर चले, शिलाओं की शैया पर सोये। मौत का मुकाबला करना पड़े, ऐसे दुर्गम स्थानों पर साधना करते हुए वे नैनीताल के जंगलों में पहुँचे।

गुरु की प्राप्ति

ईश्वरप्राप्ति की तड़प से वे नैनीताल के जंगलों में पहुँचे। 40 दिन के लम्बे इन्तजार के बाद वहाँ इनका परमात्मा से मिलाने वाले परम पुरुष से मिलन हुआ, जिनका नाम था स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज। वह बड़ी अमृतवेला कही जाती है, जब ईश्वर की खोज के लिए निकले परम वीर पुरुष को ईश्वरप्राप्त किसी सदगुरु का सान्निध्य मिलता है। उस दिन को नवजीवन प्राप्त होता है। गुरु के द्वार पर भी कठोर कसौटियाँ हुई थीं, लेकिन परमात्मा के प्यार में तड़पता यह परम वीर पुरुष सारी-की-सारी कसौटियाँ पार करके सदगुरुदेव का कृपाप्रसाद पाने का अधिकारी बन गया। सदगुरुदेव ने साधना-पथ के रहस्यों को समझाते हुए आसुमल को अपना लिया। आध्यात्मिक मार्ग के इस पिपासु-जिज्ञासु साधक की आधी साधना तो उसी दिन पूर्ण हो गई जब सदगुरु ने अपना लिया। परम दयालु सदगुरु साईं श्री लीलाशाहजी महाराज ने आसुमल को घर में ही ध्यान भजन करने का आदेश देकर 70 दिन तक वापस अहमदाबाद भेज दिया।

आश्रम की स्थापना

साबरमती नदी के किनारे की उबड-खाबड़ टेकरियों (मिट्टी के टीलों) पर भक्तों द्वारा आश्रम के रूप में 29 जनवरी 1972 को एक कच्ची कुटिया तैयार की गई। इस स्थान के चारों ओर कंटीली झाड़ियाँ व बीहड़ जंगल था, जहाँ दिन में भी आने पर लोगों को चोर-डाकुओं का भय बराबर बना रहता था। लेकिन आश्रम की स्थापना के बाद यहाँ का भयावह एवं दूषित वातावरण एकदम बदल गया। आज इस आश्रमरूपी विशाल वृक्ष की शाखाएँ भारत में ही नहीं, विश्व के अनेक देशों तक पहुँच चुकी हैं। साबरमती के बीहड़ों में स्थापित यह कुटिया आज ‘संतश्री आसारामजी आश्रम’ के नाम से एक महान पावन तीर्थधाम बन चुकी है। इस ज्ञान की प्याऊ में आज लाखों की संख्या में आकर हर जाति, धर्म व देश के लोग ध्यान और सत्संग का अमृत पीते हैं तथा अपने जीवन की दुःखद गुत्थियों को सुलझाकर धन्य हो जाते हैं।

सत्संग समारोह

आज के अशांत युग में ईश्वर का नाम, उनका सुमिरन, भजन, कीर्तन व सत्संग ही तो एकमात्र ऐसा साधन है जो मानवता को जिन्दा रखे बैठा है और यदि आत्मा-परमात्मा को छूकर आती हुई वाणी में सत्संग मिले तो सोने में सुहागा ही मानना चाहिए। श्री योग वेदान्त सेवा समिति की शाखाएँ अपने-अपने क्षेत्रों में संतश्री के सुवचनों का आयोजन कर लाखों की संख्या में आने वाले श्रोताओं को आत्मरस का पान करवाती हैं। श्री योग वेदान्त सेवा-समितियों के द्वारा आयोजित आसारामजी बापू के दिव्य सत्संग समारोह में अक्सर यह विशेषता देखने को मिलती है कि इतनी विशाल जनसभा में ढाई-ढाई लाख श्रोता भी शांत व धीर-गंभीर होकर इनके वचनामृतों का रसपान करते हैं तथा मंडप कितना भी विशाल क्यों नहीं बनाया गया हो, वह भक्तों की भीड़ के आगे छोटा पड़ ही जाता है।

नारी उत्थान केन्द्र की स्थापना

‘राष्ट्र को उन्नति के परमोच्च शिखर तक पहुँचाने के लिए सर्वप्रथम नारी-शक्ति का जागृत होना आवश्यक है...’ यह सोचकर इन दीर्घदृष्टा मनीषी ने साबरमती के तट पर ही अपने आश्रम से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर ‘नारी उत्थान केन्द्र’ के रूप में महिला आश्रम की स्थापना की। महिला आश्रम में भारत के विभिन्न प्रान्तों से एवं विदेशों से आईं हुई अनेक सन्नारियाँ सौहार्दपूर्वक जीवनयापन करती हुई आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर हो रही हैं।


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